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________________ १५ का विकास हुआ । तात्पर्य यह है कि इन गाथाओं में ही कथा का समस्त प्रभाव निहित रहता था तथा पाठक इन्हें सहज में स्मरण भी रख सकता था । ( जैन आगमिक साहित्य में भी उक्त प्रकार के आदर्श सूत्रों की बहुलता है, जो पाठक के अन्तस् पर अपना अमिट प्रभाव अंकित करते हैं तथा जिनके प्राधार पर उत्तरकाल में कथाओं का विकास हुआ है ।) उत्तराध्ययन की कथानों का पहले उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ में इस प्रकार की बीजधर्मा गाथाओं की बहुलता है। आदर्शसूत्र वाक्य' जिनमें जीवन की दिशा को मोड़ देने की पर्याप्त शक्ति वर्तमान है, और जिनपर कथाओं का भव्य प्रासाद खड़ा किया जा सकता है। चोर, विजयघोष, जयघोष एवं शकट के दृष्टान्त तथा कथात्मक नीति वाक्यों को इस अर्धमागधी आगमिक कथाओं के प्रमुख उपादान मान सकते हैं। निष्कर्ष यह है कि उक्त कथाओं या कथाबीजरूप आदर्श वाक्यों का लक्ष्य तप, संयम, अहिंसा, सदाचार, आत्मतत्त्व के प्रतिपादन के साथ जातिवाद, हिंसा, मिथ्यातत्व एवं विकृतियों का निराकरण करना है । इसी प्रकार जब हम दूसरी ओर शौरसेनी भाषा में निबद्ध प्रागमिक प्राकृत कथासाहित्य की गम्भीर धारा को ओर दृष्टिपात करते हैं तो यहां भी इसमें चरित काव्यों के बीज एवं पौराणिक आख्यानों, निजधरी कथाओं एवं दृष्टान्त कथाओं के प्रारूप उपलब्ध होते हैं। यों तो शौरसेनी आगमिक ग्रन्थों में प्रधान रूप से कर्मसिद्धान्त एवं दर्शन के किसी अन्य विषय का निरूपण ही मिलता है, पर तो भी नामों का उद्देश्य वाक्यों के रूप में कथाओं के बीज भी मिल जाते हैं। शौरसेनी भाषा की कथा परम्परा के अनुसार ज्ञातृधर्मकथांग में, जो कि इस मान्यतानुसार लुप्त है, अनेक प्रकार के शिक्षाप्रद पाख्यान थे। अन्तःकृद्दशांग में भगवान् महावीर के तीर्थकाल में नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यम, बाल्मीक और बलोक प्रादि (जिन महापुरुषों ने संसार बन्धन का उच्छेद कर निर्वाणलाभ किया था, उनको जीवनगाथाएं अंकित थीं। इसके अतिरिक्त अन्य तेईस तोथंकरों के तीर्थकाल में जो दस प्रसिद्ध महापुरुष कर्मबन्धन से रहित हुए थे और जिन्होंने दारुण उपसर्गों पर विजय प्राप्त किया था, उनकी जीवनगाथाओं का उल्लेख था ।) अनुत्तरोपपादिक दशांग में अनुत्तरविमानवासी ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कात्तिक, नन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, वारिषेण और चिलातपुत्र के उन भावपूर्ण प्राख्यानों का निर्देश था, जो भगवान महावीर के समकालीन थे और जिन्होंने भयंकर दस-दस उपसगों पर विजय प्राप्त था। इन जीवनगाथाओं के अतिरिक्त शेष तेईस तीर्थ करों के समय में भी जो दस १-मणगुत्तो वयगुत्तो कायगुत्तो जिइन्दियो। सामगं निच्चलं फासे जावज्जीवं दृढव्वप्रो ।। उत्त० २२। ४७ । . २-तणे जहा सन्धिमुहे गहीए सकम्मुणा किच्चइ पावकारी । एवं पया पेच्व इहं च लोए कडाण कम्माण न मोक्खु अस्थि ।। उत्त० ४।३। ३–एवं से विजयघोसे जयघोसस्स अन्तिए। अणगारस्स निक्खन्तो धम्म सोच्चा अणुत्तरं ।। उत्त० २५-४४ । ४-वहणे वहमाणस्स कन्तारं अइवत्तई। जोगे वहमाणस्स संसारो अइवत्तई । उत्त० २७।२ । ५–मरिहिसि रायं जया तया वा मणोरमे कामगण विहाय । एवको हु धम्मो नरदेवताणं न बिज्जई अन्मिहेह किंचि ॥ उत्त० १४।४० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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