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________________ में दुःखविपाक-अशुभ कर्मों का फल दिखलाने के लिए मृगापुत्र उज्झित, अमग्नसेन, शकट, बृहस्पतिदत्त, नन्दिषण, अम्बरदत्त, सोरियदत्त, देवदत्त और अजदेवी की जीवनगाथाएं अंकित है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस अध्ययन में शुभफल प्रदर्शित करने के लिए सुबाहु, भद्रनन्दी, सुजात, सुवासव, जिनदास, धनपति, महाबल, भद्रनन्दी, महाचन्द्र और वरदत्त की जीवनगाथाएं उल्लिखित है। उपर्युक्त इन बीस पाख्यानों द्वारा यह बतलाया है कि कोई भी प्राणी जन्म-जन्मान्तरों में अपने योग --मन, वचन और कार्य की क्रिया के द्वारा अपने राग द्वेष और मोह आदि भावों के निमित्त कर्मों का बन्ध करता है, कर्मोदय होने पर पुनः राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है और भावों के अनुसार कर्मों का बन्ध होता है। इन बंधे हुए कर्मों का प्रात्मा के साथ किसी विशेष समय की अवधि तक रहना कषाय की तीव्रता या मन्दता पर निर्भर है। यदि कषाय हल्के दर्जे की होती हैं तो कम परमाणु भी जीव के साथ कम समय तक ठहरत है और फल भी कम ही देते हैं। कषायों की तीव्रता होने पर पाये हुए कर्म परमाणु जीव के साथ अधिक समय तक बने रहते हैं और फल भी अधिक मिलता है। अतः प्रासुरी वृत्तियों का त्याग कर दैवी प्रवृत्तियों को अपनाना चाहिए । इन पाख्यानों में जन्म-जन्मान्तर में किये गये शुभाशुभ कर्मफलों का निरूपण किया गया है। ऐसा लगता है कि कर्म संस्कारों की महत्ता दिखलाने के लिए ही ये कथाएं गढ़ी गयी है ।। कथातत्त्व की दृष्टि से मंगापुत्र' कथा सुन्दर है। इसमें घटनाओं की क्रमबद्धता के साथ घटनाओं में उतार चढ़ाव भी है । प्रश्नोत्तर शैली का आश्रय लेकर कथोपकथनों को प्रभावोत्पादक बनाया है । मृगापुत्र का बीभत्स रूप उपस्थित कर दुश्चरितों से पृथक् रहने के लिए संकेत किया है । उज्झिका की कथा में दृश्यों का बहुत सुन्दर चित्रण हुआ है। इन कथाओं में मांस भक्षण, मदिरापान, दुराचार, कपटाचार आदि से पृथक् रहने का उपदेश वर्तमान है । ( समस्त कथाओं में वर्गशील का निरूपण हुआ है। मृगापुत्र, उज्झिकादि पात्र अपनेअपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं।) चरित्र उच्चावय प्रेरणाओं के अनुरूप असमगति से कभी ऊपर और नीचे नहीं होते हैं। सभी चरित्र समगति से विकसित होते हुए दिखलायी पड़ते हैं। चरित्रांकन में प्रभावोत्पादकता या अन्य किसी प्रकार का कौशल नहीं है । अतः पात्रों के शील के प्रति आकर्षण या विकर्षण उत्पन्न नहीं हो पाता । मनोरंजन का तत्त्व भी प्रायः नगण्य है (अति प्राकृतिक तत्त्वों की योजना कई स्थलों पर हुई है। दुःखों के मूर्त स्वरूप जिन पात्रों की कल्पना की गयी है, उनके कष्टों से द्रवित हो पाटक के मन में सहजानुभूति तो जाग्रत हो ही जाती है) पर आकस्मिक घटनाओं का समावेश न होने से स्थायी प्रभाव नहीं पड़ पाता है । (कथा प्रारम्भ से ही पाठक उसके फल की अनुभूति कर लेता है। उपदेश तत्व की सघनता इतनी अधिक है कि कुतूहल वृत्ति के जाग्नत होने का अवसर ही नहीं आ पाता __ प्रौपपातिक में भगवान महावीर के पुण्यभद्र बिहार में जाकर कर्म और पुनर्जन्म के सम्बन्ध में उपदेश देने की कथा है ।(गौतम इन्द्रभूति के प्रश्नों और महावीर उत्तर में भी कथाबीज विद्यमान हैं) रायपसेणिय में देवसरियान की मोक्षप्राप्ति की कथा तथा राजा प्रदेशी और मुनि के शी के बीच हुए प्रात्मा की स्वतंत्र सत्ता पर मनोहर वार्तालाप अंकित है। १-इहेव मियग्गामे णगरे विजयस्स--पुत्ते मियादेवाए अत्तए मिया उत्ते णामं दारए नातनधरुणस्थिणं तस्स दारगस्स... . .हब्वमागते । विपाक० पृ० ३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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