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हरिभद्र ने शील को निम्न प्रकार लोकगम्य बनाया है :(१) पात्रों के स्वभावगुणानुसार उनके सहज रूपों का अभिनिवेश। (२) कूट परिहास, ड्रामेटिक पाइरनी द्वारा मानव की सारी कमजोरियों पर
___ व्यंग्य करते हुए मार्मिक पक्षों का उद्घाटन। (३) दैनिक जीवन के सम्बन्धों की मार्मिक विवेचना तथा विभिन्न वातावरण
और उनके परिवेशों के बीच चरित्रों का उन्नयन। (४) पारस्परिक प्रेम, घृणा, ईर्ष्या आदि के संघर्षों का स्वाभाविक विश्लेषण।
(५) वर्गगत और व्यक्तिगत दोनों ही प्रकार की मनोवृत्तियों का विश्लेषण । प्राकृत कथाकारों में अपने समय के हरिभद्र प्रथम कथाकार हैं, जिन्होंने समाज के सभी वर्ग के पात्रों को अपनी कृतियों में स्थान दिया है। इनके पात्रों को मूलतः तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है--(१) मानव, (२) अतिमानव, (३) अमानव । हरिभद्र ने स्वयं पात्रों को दिव्य, दिव्य-मानुष और मानुष इन तीन श्रेणियों में विभक्त किया है । मानव पात्र केवल राजन्यवर्ग से ही नहीं ग्रहण किये गये हैं, बल्कि चाण्डाल, भिल्ल, धोबी, कोली, सार्थवाह, वणिक, ब्राह्मण, सामन्त, प्रभृति सभी क्षेत्रों से पात्रों को ग्रहण किया है । अतः पात्र वैविध्य के साथ चरित्र वैविध्य भी हरिभद्र के शीलस्थापत्य की विशेषता है । एक ही स्थल पर राजा, मंत्री, पुरोहित से लेकर चोर, डकैत, शिकारी, व्यभिचारी, प्रेमी, प्रेमिका, व्यापारी आदि के चरित्र-चित्रों का मिलना प्राधुनिक किसी चित्रशाला के चित्र सौन्दर्य से कम नहीं माना जायगा।
हरिभद्र पात्रों की दुर्बलताओं एवं सबलतानों का यथास्थान चित्रण करते चलते हैं। किसी विशेष स्थिति में पात्रों की मनोदशा किस प्रकार की रहती है और किस प्रान्तरिक प्रेरणा से पात्र कौन-सा कार्य सम्पन्न करते हैं, पात्रों के कषाय-विकार कितने प्रबल है, आदि का चित्रण हरिभद्र ने तटस्थ रहकर किया है । पात्रों के स्वगत चिन्तनों से उनके चरित्र की प्रमख विशेषताओं का उदघाटन भी वर्तमान है । पात्रों की वर्गगत एवं जातिगत विशेषताओं को बनाये रखने की पूरी चेष्टा की गयी है ।
संक्षेप में इतना लिखनाही पर्याप्त है कि इनकी कथानों में कहीं पर विश्लेषणात्मक प्रणाली के द्वारा चरित्र विकास का आयोजन है, तो कहीं पात्रों के पारस्परिक वार्तालाप के बारा चरित्रगत विशेषताओं का दिग्दर्शन कराया गया है । संकेतात्मक प्रणाली भी इनकी कथाओं में जहां-तहां उपलब्ध होती है।
प्रधानतः पात्रों के परस्पर वार्तालाप द्वारा चरित्र विकास की प्रणाली का अनुसरण ही हरिभद्र की कथाकृतियों में पाया जाता है । सभी वर्ग के पात्र अपने भीतरी राग भावों के कारण अपने अन्तस् की बात को दूसरे पात्र से कहते है और दूसरा पात्र वार्तालाप के क्रम में अपनी प्राभ्यन्तरिक व्यथा या उल्लास का निवेदन तीसरे पात्र या
से करता है । इस प्रकार कथोपकथन की एक श्रृंखला चलती है, जिससे पात्रों का चरित्र अभिनयात्मक रूप में प्रकट होता जाता है । अतएव स्पष्ट है कि हरिभद्र ने चरित्र-चित्रण में विश्लेषणात्मक और अभिनयात्मक दोनों ही प्रणालियों को अपनाया है । यद्यपि आलोचक विश्लेषणात्मक प्रणाली को अभिनयात्मक प्रणाली की अपेक्षा उत्तम नहीं समझते हैं, तो भी चरित्रगत उत्कर्ष दिखलाने में प्रत्येक कथाकार को न्यूनाधिक मात्रा में विश्लेषणात्मक प्रणाली को भी अपनाना पड़ता है। यथार्थतः अभिनयात्मक प्रणाली पूर्णरूप से चरित्र की विशेषताओं को चित्रोपमता प्रदान करने में असमर्थ रहती है।
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