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हरिभद्र की कथाकृतियों में स्थिर और गतिशील दोनों प्रकार के पात्र आते हैं । स्थिर शील वाले व पात्र हैं, जिनके चरित्र में श्राद्योपान्त कोई अन्तर नहीं श्राता और व स्थिर बने रहते हैं । गतिशील पात्र अपने जीवन में अनेक चारित्रिक परिवर्तनों को घटता हुआ पाते हैं ।
शील निरूपण में परिस्थितियों का योग
पात्रों के चरित्र विकास में परिस्थितियों का प्रभाव यदि नहीं पड़ता है, तो पात्रों में सजीवता नहीं श्रा सकती है । मानव जीवन में अनेक ऐसी परिस्थितियां श्राती हैं, 'जो जीवन में अनेक प्रकार के परिवर्तन प्रस्तुत करती हैं । परिस्थितियों के झटके खाकर मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन होता है । हरिभद्र ने भी पात्रों के चरित्र विकास में विभिन्न परिस्थितियों के थपेड़ों का सुन्दर श्रंकन किया है । प्रवान्तर कथा में अंकित राजा सुरेन्द्रदत्त की मां यशोधरा में परिस्थितियों के कारण विचित्र परिवर्तन हो जाता है । सुरेन्द्रदत्त स्वप्न देखता है, जिस स्वप्न का फल अत्यन्त श्रनिष्टकर हैं । पिता के दीक्षित हो जाने के कारण वह अपनी मानसिक व्यथा अपनी माता यशोधरा से निवेदित करता है । पुत्र प्रेम से विह्वल हो माता इस अरिष्ट की शांति का उपाय बतलाती हैं, पर उसका यह उपाय हिंसामय है । उसके वंदिक यज्ञ-यागादि संबंधी संस्कार उत्तेजित हो जाते हैं तथा वह भैंसे, बकरें और मुर्गे आदि की बलि देने की सलाह देती है । सरेन्द्रदत्त की श्रात्मा हिंसक - बलि प्रथा का विरोध करती है और वह अपनी माता से अनुरोध करता है कि हिंसा प्रधान व्यक्ति को होना चाहिये । जो दूसरों के दुःख से द्रवित नहीं होता, वह व्यक्ति अपने जीवन में प्राध्यात्मिक विकास नहीं कर सकता है । हिंसा व्यक्ति को लोक-परलोक दोनों में कष्ट देती है । श्रतः श्ररिष्ट शमन के लिये हिंसात्मक उपाय के अवलम्बन की आवश्यकता नहीं है ।
पुत्र कनिष्ट की आशंका से मां का हृदय प्रातंकित हैं । वह जैसे भी हो, अपने पुत्र को सुखी और सम्पन्न देखना चाहती है । पुत्र के ऐश्वर्य का विकास हो और वह एकछत्र राज्य भोग सके यही तो उसकी कामना है । पुत्र प्रेम की विवशता उसे सभी कुछ करने को बाध्य करती है । वह इन विषम परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देती हैं । अतः बहुत जोर देकर आटे के मुर्गे की बलि देने के लिये सुरेन्द्रदत्त को तैयार कर लेती है । आटे के मुर्गे की बलि देने से संकल्पी हिंसा तो हो ही जाती है, अतः शुभ कर्मों का अर्जन होने से उसे अनेक कुयोनियों में परिभ्रमण करना पड़ता है ।
इस प्रकार हरिभद्र ने चरित्र विकास के हेतु विभिन्न परिस्थितियों की योजना की है । घटना या चरित्रों में मात्र चमत्कार दिखलाना ही इनका कार्य नहीं है, बल्कि भावनाओं के विकास के लिये उचित भूमि तैयार करना और उस भूमि में धीर, ललित, उद्धत या शान्त शील को श्रंकरित करने के लिये देश-काल का उचित वातावरण तैयार करना इनका ध्येय हैं । यद्यपि यह सत्य है कि हरिभद्र के पात्रों का चरित्र समतल भूमि पर ही विकसित होता चलता है । कर्म संस्कार की श्रृंखला में जकड़े रहने के कारण पात्रों के गुणधर्म में कोई विशेष परिवर्तन नहीं दिखलायी पड़ता है, तो भी परिस्थितियां चरित्र विकास में योगदान देती चलती हैं । पूर्वजन्म के संस्कारों ने पात्रों को कठपुतली बना दिया है ।
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