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यदि हरिभद्र ऐसा न करते तो इन्हें समराइच्चकहा जैसे धार्मिक उपन्यास के लिखने में जो सफलता मिली है, वह नहीं मिलती । श्रतः पात्रों की मूलवृत्ति और उससे सम्बद्ध विविध प्रानुषंगिक उतार-चढ़ाव की बातें अत्यन्त क्षिप्र और क्रमागत रूप में उपस्थित की गयी हैं ।
हरिभद्र के शील स्थापत्य की दूसरी विशेषता है चरित्र विस्तार का पूर्ण विस्तारक्रम और उसका सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवरण उपस्थित करना । जीवन के द्वन्द्व और संघर्षो के बीच पात्र बढ़ते चलते हैं । क्रोध, मान, माया और लोभादि भाव वृत्तियां मनोविकारों के रूप में अपना प्रभाव दिखलाती चलती हैं ।
हरिभद्र के चरित्र स्थापत्य की तीसरी विशेषता है क्रिया को प्रकट करने वाले प्रभावों को समझने की चेष्टा के साथ मूल प्रेरक भावों को छान-बीन करना । क्रिया सम्पादित करने की पृष्ठभूमि का श्रनेकान्तात्मक चित्रण इनके पात्रों में उपलब्ध होता है । पात्रों के क्रियाकलापों के साथ उनके सामाजिक और असामाजिक तत्वों का सच्च रूप में उद्घाटन भी इनकी विशेषता है ।
चौथी विशेषता है कथानों में चरित्र विश्लेषण द्वारा घटनाओं का विकास। जिन कथाओं में विभिन्न घटनाओं का चित्रण करके कथा प्रवाह को तीव्रता प्रदान की जाती है, वे कथाएं पाठक के हृदय पर अपना स्थायी प्रभाव अंकित नहीं कर पातीं । स्थायी प्रभाव के लिये रागात्मक मनोवेगों का विश्लेषण करना परम श्रावश्यक है ।
हरिभद्र के शीलस्थापत्य की पांचवीं विशेषता है परिस्थिति सापेक्षगुण और प्रवृत्तियों का विश्लेषण । हरिभद्र के पात्र प्रकारण किसी कार्य का सम्पादन नहीं करते हैं और न लगातार एक-सी कोई वृत्ति चलती हैं, बल्कि जब जैसा अवसर प्राप्त होता है, पात्र तद्रूप में परिवर्तित हो जाते हैं । यह सत्य है कि व्यक्ति में सर्वदा एक ही संवेदन या मनोभाव नहीं रह सकता है । अतः परिस्थिति या अवसर के अनुसार पात्र के स्वभाव और गुणों में परिवर्तन दिखलाना हरिभद्र की अपनी विशेषता है । यद्यपि निदान परम्परा को स्वीकार करने के कारण पात्रों के मूलभाव जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों से सम्पन्न होते हैं, तो भी देश, काल और वातावरण का प्रभाव उनके ऊपर पूर्णतया वर्तमान है ।
सजीवता हरिभद्र के शील स्थापत्य की छठी विशेषता है । हरिभद्र के पात्र तिरे कल्पित नहीं हैं, बल्कि वे जीवधारी हैं । उनकी सारी क्रियाएं जीवधारियों के समान होती हैं । समय आने पर पात्र रोते - कलपते हैं, हंसी और श्रानन्द मनाते भी देखे जाते हैं । परिवर्तन या विकास जीवन का शाश्वतिक नियम है, इसी नियम के आधार पर जीव की भोक्तृत्व शक्ति का विकास होता है । संस्कार प्रधान पात्र भी करुणा, दया और ममता से प्रविष्ट हैं । जिस लेखक के पात्र सजीव और क्रियाशील हैं, वही चरित्रचित्रण में सजीवता ला सकता है । अहं, उपादान और प्रासक्ति ग्रन्थि की विशेषता ही इस प्रकार के शील में प्रमुख रूप से पायी जाती है ।
सातवीं विशेषता है शील वैविध्य के चित्रण की । शान्त, धीर, ललित और उद्धत इन चारों प्रकृति वाले व्यक्तियों के विचार-भाव, श्रावेग-संवेग आदि का साकार चित्रण किया है । सात्विक, राजसी और तामसी इन तीनों प्रकार की मनोवृत्तियों का चित्रण एक ही कथा में पाया जाता है । महत्वाकांक्षी प्रभुता प्रेमी महामण्डलेश्वर राजानों के चरित्रों के साथ दरिद्रनारायण के उपासकों के सात्विक चरित्रों की कमी नहीं पायी जाती है । चरित्र की विविधता के बीच अनेकरूपता पलती है । राजाओं के ग्रामोद-प्रमोद, सार्थवाहों की व्यापार प्रवीणता एवं नायिकाओं की विविध दुर्बलताएं और उनकी विलासमुद्राएं बड़े सुन्दर रूप में अभिव्यंजित हुई हैं ।
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