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वसुदेवहिण्डी मं ज्यों-के-त्यों रूप में उपलब्ध हैं प्रतिभा द्वारा उनमें काट-छांट की है। वसुदेवहिण्डी में पाया जाता है ।
। हां, यह ठीक है कि हरिभद्र ने अपनी सुलसा का आख्यान भी कुछ रूपान्तर के साथ
उपदेशपद में मानव पर्याय की दुर्लभता एवं बुद्धिचमत्कार को प्रकट करने के लिए लगभग बीस-पच्चीस आख्यान आये हैं । इन सभी आख्यानों का स्रोत नन्दीसूत्र है । औत्पत्ति की बुद्धि के विषय में रोहक कुमार के तेरह दृष्टान्तों को नन्दीसूत्र में निम्न प्रकार बतलाया गया है --
भहसिल १, मिट २, कुक्कुड ३, तिल ४, बालुय ५, हथि ६, अगड ७, वणसंडे ८, पासय ९, आइआ १०, पत्ते ११, खाडहिला १२, पंचपियरो य १३ ॥
भरहसिल पणियरुक्ख खुडुगपड सरडकाय उच्चारे ।
गय धयण गोल खंभे खुडुग मग्गि त्थि पद पुत्तं ॥ महसित्थ मुद्दि अंक नाणए भिक्खु चे डगनिहाणे । सिक्खा य अत्थसत्य इच्छा य महं सयसहस्से ॥ उपदेश पद में इसी विषय का निरूपण निम्नगाथाओं में किया गया है:भरहसिल पणियरुक्खे खड्डगपड सरडकाय उच्चारे । artaण गोलखंभ खुड्डगमगगनत्थिपइपुत्ते ॥ इत्यादि
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इसी प्रकार वैनयिकी बुद्धि और पारणामिकी बुद्धि के लक्षण और उदाहरण भी हरिभद्र ने उपदेशपद में नन्दीसूत्र से ग्रहण किये हैं । भाव और भाषा की दृष्टि से यह प्रसंग समानरूप से दोनों ग्रन्थों में आया है ।
हरिभद्र ने भावशुद्धि के लिये दशवकालिक टीका में एक आख्यान उद्धृत किया है, जिसमें बताया है कि एक राजपुत्र को एक सर्प ने काट लिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी । फलतः राजा ने समस्त सर्पों को मारने का आदेश दिया । एक दिन देवता ने स्वप्न में राजा को दर्शन देकर बतलाया कि तुम सर्पों की हिंसा मत करो, तुम्हारे यहां नागदत्त नाम का पुत्र उत्पन्न होगा। इस कथा का संबंध महाभारत के सर्पयज्ञ से जोड़ा जा सकता है । बताया गया है कि प्रमद्वरा का रूरू के साथ विवाह संबंध होने को था । विवाह के पहले ही प्रमद्वरा को एक सांप ने डंस लिया, जिससे रूरू ने सर्पों के विनाश का निश्चय किया । रूरू को डुण्डु ने अहिंसात्मक उपदेश दिया । परीक्षित को सर्प द्वारा डंसे जाने के कारण जनमेजय ने भी सर्पसत्र का आरम्भ कर सर्पों का विनाश किया था । अतः सर्प विनाशवाला आख्यान बहुत प्राचीन है । इसका उल्लेख प्रायः समस्त भारती आख्यान साहित्य में हुआ है ।
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१- वसुदे ० का नागरियछलियस्स सागडिमस्स उदंतं तथा द० हा ० ०, पृ० ११८ - ११६ । २ -- नन्दीसूत्र मूल गाथा ७०, ७१, ७२ ।
३ --- उपदेशपद गाथा ४०-४२, पृष्ठ ४५-४६ ।
४ -- द० हा ०, पृ० ७३ ।
५ -- महा० आ०, पृ० ५ श्लोक ६-७ तथा हवां प्र० ।
६ वही आ०, पृ० ५३-५४
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