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माता है। वह संवाहक को छडाता है। माथुर और दर्दरक में झगड़ा होता है। संवाहक भाग जाता है और वसन्तसेना के घर में शरण लेता है। संवाहक को चारुदत्त का पुराना भृत्य जानकर वसन्तसेना बड़ी प्रसन्न होती है। जब उसे यह मालूम होता है कि वह जुए में हारकर भागा है और जीते हए जुआड़ी उसका पीछा कर रहे हैं, तो वह रुपयों के बदले आभूषण भिजवा देती हैं। माथुर और द्यूतकर सन्तुष्ट होकर चले पाते हैं। संवाहक भी विरक्त होकर शाक्य श्रमण बन जाता है ।
जब शकार पुष्पकरण्डक जीणोद्यान में वसन्तसेना की हत्या का प्रयास करता है और उसे मृत समझकर पत्तों से ढंककर चला जाता है, तब यही भिक्षु वसन्तसेना के प्राणों की रक्षा करता है तथा वसन्तसेना के साथ आकर श्मशानभूमि में चारुदत्त को प्राणदण्ड से छुड़ाता है ।
उक्त कथानक की तुलना से स्पष्ट है कि हरिभद्र का महेश्वर मृच्छकटिक के समान
चारुदत्त को वधस्थान की ओर ले जाते हुए चाण्डाल कहते हैं:--"शुणाध अज्जा शुणाध । एशे शत्थवाहविणअदत्तश्श णत्थिके शाअलदत्तश्श पुत्तके अज्ज चालु दत्त णाम । एदिणा किल अकज्जकालिणाधणिया वशन्तसे णा अत्थकल्लवत्तश्श कालणादो शुण्णं पुप्फकलण्डअजिण्णुज्जाणं. . . . . . ।
जब चाण्डाल तलवार खींचकर चारुदत्त को मारना चाहता है कि तलवार हाथ से गिर पड़ती है। चाण्डाल अनुमान करता है कि चारुदत्त की मृत्यु नहीं होगी। वह अपनी आराध्या देवी सह्य निवासिनी से प्रार्थना करता है कि देवी प्रसन्न हो, प्रसन्न हो, चारुदत्त मृत्यु के मुख से छूट जाय ? तो यह चाण्डालकूल आपसे अनुगृहीत हो जाय । इस प्रसंग में चाण्डालों की एक उक्ति भी आयी है कि चाण्डालकुल में उत्पन्न होने पर भी हमलोग चाण्डाल नहीं है, किन्तु जो साधुजन को पीड़ित करते हैं वे ही पापी है एवं चाण्डाल
।
तुलना करने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि समराइच्चकहा के उक्त प्रसंग का स्रोत यहीं से ग्रहण किया गया है। पर, हरिभद्र ने नाटकीय वर्णनों को कथात्मक गंभीर बनाने में किसी प्रकार की कमी नहीं रखी है। मच्छकटिक के चारुदत्त के पास भी वसन्तसेना का त्रिलोकसार रत्नावली हार ही पकड़ा गया था। उसी से अन्य गहनों की पुष्टि की गयी थी। समराइच्चकहा में भी रत्नावली हार के कारण ही धनसार्थवाह की अन्य चीजों को चोरी की चीजें माना गया है।
जिस प्रकार मच्छकटिक के चाण्डाल को जाति चाण्डाल कहा गया है, उसी प्रकार समराइच्चकहा में भी। अतएव उक्त कथानक समराइच्चकहा में मृच्छकटिक से या मृच्छकटिक में समराइच्चकहा से ग्रहीत किये गये हैं।
१-- मृच्छकटिक समस्त द्वितीय अंक निर्णयसागर १९१०, पृ० २२८ । २ - मृच्छकटिक का दशम अंक । ३---वही पृ० २२६ । ४... वही पु० गाथा १०।२२, २४७, निर्णयसागर, १६१० ई० ५-- णहु अम्हे चाण्डाला--वही, प० २३३ ।
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