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कूवमज्झ, अलोएइ य हो तत्थ श्रयगरी महाकाो विदारियमुहो गसिउकामो तं पुरिसमवलोएइ । तिरियं पुण चउद्दिस सप्पा भोसणा डसिउकामा चिट्ठति । पारोहमुर्वार frustraा दो मूसया छिदति । हत्थी हत्थे ण के सग्गे परासुसति । तमि य पायवे महापरिणाहं महुं ठयं । संचालिए या वातविश्रूया महुविन्दू तस्स पुरिस्स केइ मुहमाविसंति, ते य आसाएइ । महुयरा य डसिउकामा परिवयंति समेत ।
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इस दृष्टान्त को घटित करते हुए कहा है -- " जहा सो पुरिसो तहा संसारी जीवो । जहा सा अडवी, तहा जम्म-जरा-रोग-मरणबहुला संसाराडवी । जहा वण हत्थी, तहा मच्चू । जहा कुवो, तहादेवभवो मणुस्सभवो य । जहा प्रयगरो- तहा नरग- तिरिगईश्रो । जहा सप्पा, तहा कोध-माण- माया-लोभा चत्तारि कसाया दोग्गइगमणनायगा । जहा पारोहो, तहा जोवियकालो । जहा भूसगा, तहा काल सुक्किला पक्खा राई दियदसणोहिं परिविखवंति जोविनं । जहा दुम तहा कम्मबन्धणहऊ अन्नणं अविरति मिच्छत्तं च । जहा महूं, तहा सद्द-फरिसरस-रूपगंधा, इंदियत्था । जहा महुयरा, तहा श्रागंतुगा सरीरुग्गया य वाही (
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इस तुलनात्मक विवेचन से स्पष्ट है कि समराइच्चकहा के मधुविदु दृष्टांत का उद्गमस्थल वसुदेवहिंडी का उक्त मधुबिंदु दृष्टांत ही है । "गन्भवासदुक्ख ललियगयणायं "" भी इस दृष्टांत की संपुष्टि में कारण हो सकता है । हरिभद्र ने इस कथा भाग से भी अवश्य प्रेरणा प्राप्त की होगी । धार्मिक विवेचन में यह कथानक सहयोगी सिद्ध हुआ होगा ।
छठवें भव की कथा के प्रारंभ में समराइच्चकहा में आता है कि मदनमहोत्सव के अवसर पर धरण रथ पर सवार होकर मलय सुन्दर उद्यान में क्रीड़ा करने चला । उसका रथ नगर के द्वार पर पहुँचा कि उद्यान से कीड़ा करके देवनन्दी लौट रहा था । संयोग से उसका रथ भी उसी समय नगर के द्वार पर श्रा गया । अब श्रामने -सामने दोनों को रथों के हो जाने से नागरिकों के आने-जाने का मार्ग अवरुद्ध हो गया। धन के अहंभाव के कारण दोनों में से एक भी अपने रथ को आगे-पीछे नहीं करना चाहता था । उन दोनों में कोई भी एक दूसरे से कम नहीं था । जब नगर के महान् व्यक्तियों को उनके इस झगड़े का पता चला तो उन्होंने एकत्र होकर यह निर्णय किया कि पूर्वोपार्जित संपत्ति पर गर्व करना निरर्थक है । ये दोनों विदेश में जाकर अपने पुरुषार्थ से धनार्जन करें । एक वर्ष के भीतर जो अधिक धनार्जन कर लायेगा, उसी का रथ पहले नगर द्वार से जा सकेगा । चार पुरुषों ने नगर के प्रमुख व्यक्तियों का निर्णय देवनन्दी और धरण को कह सुनाया । इस निर्णय को सुनकर देवनन्दी प्रसन्न हुआ पर धरण के मन में इस बात का पश्चाताप हुआ कि व्यर्थ ही यह झगड़ा बढ़ गया है । हमारे इस अशोभनीय कार्य से नागरिकों को कष्ट हो रहा है ।
देवनन्दी और धरण दोनों ने ही नगर के महान् व्यक्तियों के निर्णय को स्वीकार किया और उनमें से धरण उत्तरापथ की ओर तथा देवनन्दी पूर्व देश की ओर सामान लादकर व्यापार के लिए रवाना हुआ।
कथानक का यह उपर्युक्त अंश वसुदेवहिडी के इन्भदारयदुगकहा संबंधो नामक कथा ज्यों-का-त्यों मिलता है । वसुदेवहिडी में बताया गया है -- "इहं दुवे इन्भदारया एक्को सवयंसो उज्जाणाओ नयर मतीति, अण्णो रहेणं निगच्छइ । तेसि नयरदुवारे मिलियाणं गव्वण
१- वसुदे वहिंडी, पृ० ८ ।
२- - वही, पृ० ८ ।
३ - - वही, पृ० ९--१० ।
४- - स० पृ० ६ । ४६६-४६६ ॥
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