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१६१ प्रोसरिउमणिच्छंताणं आलावो बढियो । तत्थेगो भणति- तुम पितिसमज्जिएण अत्थेण गविप्रो, जो सयं समत्थो अज्जेउ-तस्स सोहइ अहंकारो। बितिम्रो तहेव। तसि च अत्तुक्करिसनिमित्तं जाया पइन्ना--"जो अपरिच्छयो निग्गो बहुधणोरो एइ वारसण्हं वासाणं पारो, तस्स इयरो सवयंसो दासो होहिति" ति वयणं पत्ते लिहिऊणं णेगमहत्थे निक्खिविऊणं एक्को तहे व निग्गयो, विसयंत फलाणि पत्तपुडे गहेऊण पट्टणमुवगतो ।
वसुदेवहिंडी के उक्त कथांश से स्पष्ट है कि छठवें भव की कथा का मूलस्रोत यही ग्रंथ है । धरण का चरित्र वसुदेवहिंडी के नन्दिसेन के चरित्र से बहुत कुछ अंशों में मिलता है । कथा का उतार-चढ़ाव भी दोनों ग्रंथों में समान है।
। अतः इस तथ्य को स्वीकार करना ही पड़ेगा कि हरिभद्र ने समराइच्चकहा के लिखने में वसुदेवहिंडी से कथांशों को अपनाया है ।
समराइच्चकहा में कथानकों के अतिरिक्त ऐसे कई संदर्भ भी आये है जिनका संबंध वसुदेवहिंडी के साथ जोड़ा जा सकता है। दोनों ग्रंथों के उक्त सन्दर्भो से स्पष्ट अवगत होता है कि हरिभद्र ने अपने इन संदर्भो के स्रोत वसुदेवहिंडी से लिये हैं। यहां उदाहरणार्थ दो एक संदर्भ का निरूपण किया जाता है ।
समराइच्चकहा के तीसरे भव में भूत चैतन्यवाद का एक सन्दर्भ पाया है। यह सन्दर्भ वसदेहिडीके"धणव यस्स उप्पत्ती" में भी है। बताया गया है--"प्राया
वायअतिरित्तो न कोई उवलम्भति, सव्वं च भूयव्यं जगं । भूयाणि य संहताणि तेसु तेसु कज्जेसु उवउज्जति, ताणि पुढविजल-जलण-पवण-गगणसणियाणि ।------जहामज्जंगसु कम्मिइ काले फेणुबुब्बुयादो वि करणा तहा सरीरिणो चेयण ------भोत्त ति'।
समराइच्चकहा के नवम भव में कालचक्र का वर्णन किया गया है । अवसर्पण और उत्सर्पण ये दो मुख्य कालचक्र के भेद हैं। इनमें से प्रत्येक के सुषम-सुषम, सुषम दुःषम, दुःषम-सुषम, दुःषम और दुःषम---दुःषम । इनमें प्रथम काल का प्रमाण चार कोड़ा-कोड़ी सागर, द्वितीय का तीन कोड़ा-कोड़ी सागर, तृतीय का दो कोड़ा-कोड़ी सागर, चतुर्थ का व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर, पंचम का इक्कीस हजार वर्ष और षष्ठ का इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है । सुषम-सुषम काल में मनुष्यों की आयु तीन पल्य की और शरीर तीन ग
न गव्य ति प्रमाण होता है । इस काल में उत्पन्न हुए व्यक्तियों को भोगोपभोग की सामग्री बिना किसी कष्ट के प्राप्त होती है । कल्पवृक्षों से उनकी सारी आवश्यकताएं पूर्ण हो जाती हैं। कल्पवृक्ष दस प्रकार के होते हैं--(१) मतांग, (२) भृग, (३) तूयांग, (४) दीपांग, (५) ज्योतिरंग, (६) चित्रांग, (७) चित्ररस, (८) मणि-तांग, (९) गेहाकृति, (१०) अनग्न-वस्त्रांग ।
मतांगों से शरीर को सदा प्रफल्लित रखने वाला मद्य प्राप्त होता है । भृगों से नाना प्रकार के भोजन-पात्र उपलब्ध होते हैं। तूर्या गों से नाना प्रकार के स्वर निकालने वाले वाद्य, चित्रांगों से हार-मालाएं, चित्र रसों में नानाप्रकार के रसों के परिपूर्ण भोजनोपयोगी फलादि, मणितांगों से भषण-अलंकारादि, गहाकृतियों से प्रावास, दीपांगों से प्रकाश और ज्योतिरंगों से स्थायी-प्रकाश, उद्योत आदि प्राप्त होते हैं।
द्वितीय काल में प्रायु दो पल्य और शरीर का प्रमाण दो गव्यूति रह जाता है ।
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१--वसुदेवहिंडी पृ० ११६ । २--स० पृ० ३ । २०१--२१८ । ३--वसुदेवहिंडी पृ० २०२-२०३ ।
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