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________________ mr सप्तम प्रकरण "भाषा शैली और उद्देश्य' शीर्षक है । इसमें हरिभद्र को भाषा शैली की विशेषताओं के साथ उनकी कथाओं के उद्देश्य पर प्रकाश डाला गया है । इस प्रकरण की निम्नांकित उद्भावनाएं द्रष्टव्य है :-- १- हरिभद्र की भाषा शैली के उपादान तत्त्व । २--शैलीगत रुचि, अनुक्रम और यथार्थता आदि गुणों का निरूपण । ३--समराइच्चकहा की शैली का विश्लेषण और उसका वैशिष्ट्य । ४--हरिभद्र की सूक्तियां और उनका वैशिष्ट्य । ५--समराइच्चकहा में प्रयुक्त देशी शब्दों की तालिका। ६--समराइच्चकहा के छन्दों का विवेचन । ७--हरिभद्र को प्राकृत कथाओं का उद्देश्य तत्त्व । अष्टम प्रकरण में हरिभद्र की प्राकृत कथाओं का काव्य शास्त्रीय विश्लेषण किया गया है । यतः प्राचीन कथाओं में कथातत्त्वों के साथ काव्यत्व भी रहता है । मनोरंजन के साथ रसानुभूति कराना भी इन कथाओं का लक्ष्य है । काव्यांगों के नियोजन द्वारा कथानों को हृदय ग्राह्य बनाने का प्रयास सभी प्राचीन कथाकार करते है। हरिभद्र ने भी इसी परिपाटी के अनुसार कथाओं को काव्य-तत्त्वों से मण्डित किया है । इस प्रकरण में निम्नांकित तत्त्व उपलब्ध होंगे :-- १-कलापक्ष की दृष्टि से कथाओं का अनुशीलन । २--समराइच्चकहा में आये हुए शब्दालंकारों और अर्थालंकारों का विश्लेषण । ३--हरिभद्र की बिम्ब योजना और उसका महत्त्व । ४--हरिभद्र के रूप विचार की महत्ता और उसका विवेचन । ५--रसानुभूति और नव रसों का विश्लेषण । ६--भावपक्ष की विशेषताओं का प्रतिपादन । नवम प्रकरण में हरिभद्र की प्राकृत कथाओं का सांस्कृतिक विश्लेषण किया है। संस्कृति मानवीय व्यक्तित्व की वह विशेषता है, जो उसे एक विशेष अर्थ में महत्वपूर्ण बनाती है । किसी व्यक्ति का कुछ महत्त्व उन गुणों के कारण भी हो सकता है, जो गुण मुख्यतः प्रकृति की देन है--जैसे स्वास्थ्य और शारीरिक सौन्दर्य प्रादि, किन्त इन गणों को सांस्कृतिक गुण नहीं माना जा सकता है । यतः ये गुण जो किसी असंस्कृत व्यक्ति में भी पाये जाते हैं। वस्तुतः संस्कृति उन गुणों का समुदाय है, जिन्हें मनुष्य अनेक प्रकार की शिक्षा द्वारा अपने प्रयत्न से प्राप्त करता है। अतः संस्कृति का संबंध मुख्यतः मनुष्य की बुद्धि, स्वभाव और मनोवृत्तियों से हैं । शब्दकोषों में संस्कृति की परिभाषाएँ अनेक रूपों में मिलती है । एक स्थान पर बताया गया है कि शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रतिक्षण दृढ़ीकरण या विकास अथवा उससे उत्पन्न अवस्था संस्कृति है । मन, प्राचार अथवा रुचियों का परिष्कार भी संस्कृति के अन्तर्गत है । वास्तव में संस्कृति का संबंध प्रात्मा के परिष्करण से है। जबतक प्रात्मा का परिष्कार नहीं होता, उदात्त चरित्र की प्रतिष्ठा नहीं होती तथा जागतिक सम्बन्धों की यथार्थ जानकारी और उनके निर्वाह का दायित्व भी नहीं पा तबतक संस्कृति की प्राप्ति नहीं हो सकती है । संस्कृति के उपकरण सभ्यता के उपकरणों से भिन्न है । सभ्यता के अधिकाधिक उपकरण संचित रहने पर भी कोई व्यक्ति सुसंस्कृत नहीं माना जा सकता। यद्यपि यह सत्य है कि संस्कृति भी आगे जाकर सभ्यता के उपकरणों में अपने रूप को मिश्रित कर देती है, किन्तु उसकी धारा त्रिवेणी संगम में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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