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तृतीय प्रकरण में हरिभद्र की प्राकृत कथाओं का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है । इस प्रकरण को निम्नांकित उद्भावनाएं हैं :--
१--समराइच्चकहा के प्रत्येक भव की कथा के पृथक् अस्तित्व का औचित्य । २-प्रथम भव को बीजधर्मा कथा के आधारभूत तत्त्वों की समीक्षा। ३--अन्य सभी भवों की कथा का कथातत्त्वों की दृष्टि से पृथक्-पृथक् आलोचनात्मक
मूल्यांकन । ४--धूर्ताख्यान का अनुशीलन ।
५--हरिभद्र को प्राकृत लघु कथानों का वर्गीकरण और विवेचन । चतुर्थ प्रकरण "कथानकस्रोत और कथानक गठन" शीर्षक है । हरिभद्र ने समराइच्चकहा में वसुदेवहिण्डी से कथानकस्रोत ग्रहण किये है, किन्तु अपनी अद्भुत प्रतिभा द्वारा उन स्रोतों को अपनाकर भी एक नया रूप प्रदान किया है । इस प्रकरण की निम्न उद्भावनाएं प्रमुख हैं :--
१--समराइच्चकहा के कथानक-स्रोत और उनका विश्लेषण । २-धूख्यिान और अन्य प्राकृत लघु कथाओं के कथानक-स्रोतों का निरूपण ।
३--हरिभद्र के कथानकों की विशेषताएं । पंचम प्रकरण में हरिभद्र की प्राकृत कथाओं के संवादतत्त्व और शील स्थापत्य का निरूपण किया गया है। इसमें समराडच्चकहा तथा अन्य कथा कृतियों के आधार पर कथोपकथन और शील निरूपण पर प्रकाश डाला गया है । इस प्रकरण की निम्न उद्भावनाएं हैं :--
१--शृंखलाबद्ध और उन्मुक्त संवादों के सौष्ठव का विवेचन। २--आपसी वार्तालाप और गोष्ठी वार्तालापों का विश्लेषण। ३--हरिभद्र के शील स्थापत्य की मौलिक उद्भावनाएं । ४--शील निरूपण सम्बन्धी हरिभद्र की विश्लेषणात्मक, अभिनयात्मक और
___ संकेतात्मक प्रणालियों का स्पष्टीकरण । ५--शील का कलागत समन्वय । ६--हरिभद्र के स्वलक्षण-शील को गत्यात्मकता ।
७--शील का संश्लिष्ट-वैविध्य । षष्ठ प्रकरण में लोककथातत्त्व और कथानक रूढ़ियों का विवेचन है । इस प्रकरण में लोकतत्त्व और कथानक रूढ़ियों की दृष्टि से हरिभद्र की प्राकृत कथानों का अनुशीलन किया गया है । इसकी निम्न उद्भावनाएं प्रमुख हैं :--
१--हरिभद्र की कथाओं में लोकतत्त्वों का स्थान और विश्लेषण। २--कथाओं का लोकतात्त्विक परिशीलन। ३--स्थानीय वातावरण और प्रभावों का विश्लेषण। ४--कथानक रूढ़ियों का वर्गीकरण और विवेचन । ५--कथानक रूढ़ियों द्वारा कथानों में उत्पन्न होने वाले चमत्कार।
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