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द्वितीय प्रकरण
प्राकृत कथाओं के विविध रूप और उनका स्थापत्य
प्राकृत कथा साहित्य के विकास की कहानी लगभग दो हजार वर्षों की है। इस लम्बे समय में उसके शिल्प भी आश्चर्यजनक विकास होता रहा है । विभिन्न समय, परिस्थितियों और वातावरण में निर्मित प्राकृत कथाओं की शिल्प सम्बन्धी पारस्परिक भिन्नता और नवीनता स्पष्ट परिलक्षित होती हैं । ध्यानपूर्वक अवलोकन करने से यह अवगत होता है कि प्राकृत कथाशिल्प का यह विकास प्राकृत कथा साहित्य के समानान्तर ही हुआ हैं । यह हमें इसकी निरन्तर गतिशीलता, पुष्टता और परिपक्वता का ही संकेत करता है ।
प्राकृत कथाओं के विभिन्न रूपों का वर्गीकरण हम प्राकृत कथाकृतियों के विश्लेषण के आधार पर ही प्रस्तुत करेंगे । प्राकृत साहित्य में अद्यावधि कोई प्राकृत का अलंकार ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, अतः वर्गीकरण या स्थापत्य विश्लेषण में प्रयोगात्मक पद्धति का ही अवलम्बन लेना पड़ता है । प्राकृत कथाग्रन्थों में कथा के विविध रूपों की चर्चा अवश्य उल्लिखित हैं । इस प्रकरण में सर्वप्रथम कृतियों में उल्लिखित सामग्री के आधार पर ही प्राकृत कथा के विभिन्न रूपों का निरूपण किया जायगा ।
दशवं कालिक में सामान्य कथा के तीन भेद किये गये हैं-कहा कहा य विकहा, हविज्ज पुरिसंतरं पप्य ॥ (१) अकथा, (२) कथा, (३) विकथा |
(farea के उदय से अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जिस कथा का निरूपण करता है, वह संसार परिभ्रमण का कारण होने से अकथा कहलाती है ) तप, संयम, दान, शील आदि से पवित्र व्यक्ति लोक-कल्याण के लिए अथवा विचारशोधन के हेतु जिस कथा का निरूपण करता है, वह कथा कहलाती हैं ) इस कथा को ही कुछ मनीषियों ने सत्कथा' कहा है ।
प्रमाद कषाय, राग, द्वेष, स्त्री-भोजन, राष्ट्र, चोर एवं समाज को विकृत करने वाली कथा विकथा कहलाती है । बात यह है कि हमारे मन में सहस्रों प्रकार की वासनाएं संचित रहती हैं। इनमें कुछ ऐसी अवांछनीय वासनाएं भी हैं, जो अप्रकाशित रूप में ही दबी रह जाना चाहती हैं। अतः अज्ञातमन अपनी दबी-दबाई और कुंठित इच्छाओं को विस्थापन या संक्षिप्तीकरण के कारण उबुद्ध करता है । इस प्रक्रिया द्वारा हमारी संवेदनाओं और संवेगों का शुद्धीकरण होता रहता है ) नैतिक मन-सुपर इगो नैतिकता के आधार पर हमारी क्रियाओं की आलोचना अव्यक्त रूप से करता है ( कथाएं ऐसी सरस और गंभीर संस्कारोत्पादक निमित्त हैं, जिससे व्यक्ति की वासना या कुंठाएं उबुद्ध या शुद्ध होती हैं । अतः विकथा और अकथा के द्वारा जीवन में नंतिकता नहीं आ सकती है ( कथाकार का उद्देश्य नैतिक जीवन का निर्माण करना है और नैतिक चेतन मन की क्रियाओं को गतिशील बनाना है ) अतः मानव समाज को सुखी बनाने के लिए सत्कथा ही श्रेयस्कर है ।
१ - - दश ०हा० गाथा २०८ - २११, पृ० २२७ । २ - - यतोऽभ्युदय निःश्रेयसार्थसंसिद्धिरंजसा ।
सद्धर्मस्तनिबद्धा या सा सद्धर्मकथा स्मृता ॥
तथा -- " सत्कथा श्रवणात्" पद्म०प्र०१० श्लो० ४०--- जिनसेन का महापुराण प्र०१० श्लो० १२० ।
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