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प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है। सुख का मूल है शांति, और शांति का मूल है-- भौतिक आकर्षण से बचना। भौतिकता के प्रति जितना अधिक आकर्षण होता है, उतना ही मनुष्य का नैतिक पतन संभव है। पदार्थ, सत्ता, अधिकार और अहंभाव ये चारों ही भौतिकता के मूल है। विकथा और अकथा भौतिकता की ओर ही ले जाने वाली है। अतः व्यक्ति को स्वाभिमुख बनाने वाली और पराभिमुखता से हटाने वाली चर्चा, वार्ता या कथानक ही कथा है।)
हरिभद्राचार्य ने दशवकालिक की वृत्ति में बताया है--"महार्थापि कथा अपरिक्लेश बहुला कथयितव्या" अर्थात् महान् अर्थ को अभिव्यक्त करने वाली कथा न तो अधिक संक्षेप से और न अधिक विस्तार से कहनी चाहिए। कथा कहने या कथा लिखने में सदा इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि कथा ऐसी न हो, जिसे श्रोता या पाठक कठिनाई से हृदयंगम करें। साथ ही कथा में ऐसा गुण भी हो, जिससे वह पाठक की भावभूमि या मानसभमि का उदात्तीकरण कर सके।
प्राकृत कथाओं के विभिन्न रूपों का वर्गीकरण विषय, पात्र, शैली और भाषा इन चार दृष्टियों से उपलब्ध होता है। सर्वप्रथम विषय की दृष्टि से प्राकृत कथाओं के विभिन्न रूपों का उल्लेख किया जाता हैं। दशव कालिक में वर्ण्य विषय की दृष्टि से कथाओं के चार भेद उपलब्ध होते हैं।
अत्थकहा कामकहा धम्मकहा चेव मीसिया य कहा।
एतो एक्केक्कावि य गविहा होइ नायव्वा ॥ अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा और मिश्रित कथा । इन चारों प्रकार की कथाओं में से प्रत्येक प्रकार की कथा के अनेक भेद है।
(मोक्ष आदि पुरुषार्थों के लिए उपयोगी होने से धर्म, अर्थ और काम का कथन करना कथा है। जिसमें धर्म का विशेष निरूपण होता है, वह आत्मकल्याणकारी और संसार के शोषण तथा उत्पीड़न से दूरकर शाश्वत सुख को प्रदान करने वाली सत्कथा होती है। धर्म के फलस्वरूप जिन अभ्यदयों की प्राप्ति होती है उनमें अर्थ और काम भी मख्य है। अतः धर्म का फल दिखलाने के लिए अर्थ और काम का वर्णन करना भी कथा के अन्तर्गत ही है। यदि अर्थ और काम की कथा धर्मकथा से रहित हो तो वह विकथा ही कहलायगी। ___ लौकिक जीवन में अर्थ का प्राधान्य है। अर्थ के बिना एक भी सांसारिक कार्य नहीं हो सकता है। सभी सुखों का मूल केन्द्र अर्थ है। अतः मानव की आर्थिक समस्याओं
और उनके विभिन्न प्रकार के समाधानों को कथाओं, आख्यानों और दृष्टान्तों के द्वारा -व्यंग्य या अनुमित करना अर्थकथा है। अर्थकथाओं को सबसे प्रथम इसीलिए रखा गया
१--दशहारि०, पृ० २३० । :--दश०गा० १८८, पृ० २१२।
२--एत्थ सामन्नओ चत्तारि कहाओ हवन्ति। तं जहा। अत्थकहा कामकहा धम्मकहा संकिण्णकहा य।--याकोबी द्वारा सं० समक०, पृ० २ तथा--तत्थ य सामन्ने णं कहाउ मन्नति ताव चत्तारि । अत्थकहा कामकहा धम्मकहा तह य संकिन्ना ।--जंबु प० उ०गा० २२ ।
४--पुरुषार्थोपयोगित्वात्त्रिवर्गकथनं कथा। तत्रादि सत्कथां धामामनन्ति मनीषिणः।। तत्फलाम्युदयांगत्वादर्थकाम कथा कथा। अन्यथा विकथै वासावपुण्यास्रव कारणम्।।
---जिनसेन महा०प्र०प० श्लो० ११८-१९ ।
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