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रयणचूडाराय चरियं इस चरित ग्रन्थ के रचनाकाल के सम्बन्ध में लेखक ने कुछ भी निर्देश नहीं किया है। पर कृति के अन्त में जो प्रशस्ति दी गई है, उससे ज्ञात होता है कि यह रचना सुखबोधटीका और महावीर चरियं के बीच लिखी गई होगी। बताया गया है कि दन्दिलभद्र में इस कृति का प्रारम्भ हुआ और चड्डावल्लिपुरी में इसकी समाप्ति हुई। पुष्पिका में लिखा है “संवत् १२२१ ज्येष्ठ शुदि ६ शुक्रदिने प्रयह श्रीमदणहिलपाट के महाराजाधिराजजिनशासनप्रभावकपरमश्रावक श्रीकुमारपालदेवराज्य श्रीचड्डापल्या श्रीकुमारपालदेवप्रसादास्पदश्रीधारावर्षनरेन्द्रराज्य श्री चक्रेश्वरसूरिश्रीपरमानन्दसूरि प्रभूपदेशेन . . . . . ."। ___ इससे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ की प्राचीन प्रति कुमारपाल के अधीनस्थ धारावर्ष राजा के राज्य में श्री चक्रेश्वर सूरि--परमानन्द सूरि के उपदेश से चड्डापल्लि के निवासी पुना श्रावक ने लिखायी थी। इसमें रत्नचूड राजा का चरित वर्णित है। इसकी कथावस्तु को तीन खंडों में विभक्त किया जा सकता है ।
(१) रत्नचूड का पूर्वभव। (२) जन्म और विवाह।
(३) सपरिवार मेरू गमन और देशवत स्वीकार। प्रथम खण्ड में बताया गया है कि कंचनपुर में वकुल नाम का माली रहता था। यह अपनी भार्या पद्मिनी सहित जिनजन्मोत्सव के समय पुष्प विक्रय के लिए ऋषभदेव के मन्दिर में गया और वहां लक्षामित पुष्पों से जिनसेवा करने की भावना उत्पन्न हुई। उसने एक महीने में अपनी इस इच्छा को पूर्ण किया और जिनभक्ति के प्रभाव से यह गजपुर में कमलसेना रानी के गर्भ से रत्नचूड नामका पुत्र उत्पन्न हुआ।
रत्नचूड ने बचपन में विद्या और कला ग्रहण करने में खूब परिश्रम किया। पूर्वजन्म के शुभ संस्कारों के कारण उसने अश्वमोचन, अश्वबन्धन, वशीकरण, हस्तिसंचालन, मदोन्मत्त हाथी का वशीकरण प्रभृति कलाओं में पूर्ण पाण्डित्य प्राप्त किया। एक दिन राजसभा में एक शवर ने वन में एक अपूर्व हाथी के आने का समाचार सुनाया। रत्नचूड वन में गया और उस हाथी को उसने वश में कर लिया। वह हाथी पर सवार हो गया। हाथी रत्नचूड को लेकर भागा। राजा की सेना ने उसका पीछा किया पर हाथी का उसे पता न लगा। हाथी एक घने जंगल में पहुंचा। यहां रत्नचूड ने एक सरोवर में कमल पर आरूढ़ एक तपस्वी के दर्शन किये । तपस्वी के अनुरोध से कुमार रत्नचूड आश्रम में गया और यहां इसने एक सुन्दरी राजकन्या का दर्शन किया। तपस्वी के मुख से कन्या का परिचय अवगत कर उसने स्तम्भनी विद्या द्वारा विद्याधर से उस तिलक सुन्दरी को मुक्त किया। अनन्तर उस अद्भुत रूपलावण्यवाली तिलकसुन्दरी से कुमार का विवाह सम्पन्न हो गया।
विद्याधर पुनः तिलकसुन्दरी का अपहरण करता है । रत्नचूड उसकी तलाश करता हुआ रिष्टपुर पहुंचता है। रिष्टपुर का राजभवन शून्य मिलता है और राजकुमारी सुरानन्दा
एक यक्ष करता हग्रा मिलता है। यक्ष रात्रि म नगरी विध्वंस के सभी कारण बतलाता है। पश्चात् सुरानन्दा के साथ भी रत्नचूड का विवाह सम्पन्न हो जाता है। रत्नचूड अनेक विद्याधरों से मिलता है और उसके और भी कई विवाह सम्पन्न होते हैं। राजश्री के साथ विवाह कार्य सम्पन्न होने पर उसे महान राज्य की प्राप्ति होती है।
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