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नागदत्त की कष्ट सहिष्णुता और कुलदेवता को प्रसन्न करने के निमित्त की गयी पांच दिनों तक निराहार उपासना उस काल के रीति-रिवाजों पर ही प्रकाश नहीं डालती है ; किन्तु नायक के चरित्र और वृत्तियों को भी प्रकट करती है । सुदत्त कथा में गृहकलह का प्रतिपादन करते हुए गार्हस्थिक जीवन के चित्र उपस्थित किये गये हैं । कथानक इतना रोचक है कि पढ़ते समय पाठक की बिना किसी प्रयास के इसमें प्रवृत्ति होती हैं। सास, बहू, ननद और बच्चों के स्वाभाविक चित्रण में कथाकार ने पूरी कुशलता प्रदर्शित की है । सुजसश्रेष्ठि और उसके पुत्रों की कथा में बालमनोविज्ञान के अनेक तत्त्व वर्तमान हैं । धनपाल और बालचन्द्र की कथा में वृद्धविलासिनी वेश्या का चरित्र बहुत सुन्दर चित्रित हुआ है ।
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यह ग्रन्थ गद्य-पद्य दोनों में लिखा गया है । पद्य की अपेक्षा गद्य का प्रयोग कम हुआ है । अपभ्रंश और संस्कृत के प्रयोग भी यत्र-तत्र उपलब्ध हैं । शैली में प्रवाह गुण हैं ।
महावीर चरियं
इस चरित ग्रन्थ के रचयिता चन्द्रकुल के वृहद् गच्छीय उद्योतन सूरि के प्रशिष्य और श्राप्रदेव के शिष्य नेमिचन्द्र सूरि हैं । श्राचार्य पद प्राप्त करने के पहले इनका नाम देवेन्द्रगणि था । ये मुनिचन्द्र सूरि के धर्मसहोदर थे । इस गच्छ में प्रद्युम्न सूरि श्राप्रदेव सूरि, सुप्रसिद्ध देव सूरि, उद्योतन सूरि तथा श्रम्बदेव उपाध्याय प्रसिद्ध हैं। इनकी चार रचनाएं उपलब्ध हैं- महावीर चरियं, रयणचूडराय चरियं श्राख्यानमणिकोष और उत्तराध्ययन की सुखबोध टीका। सुखबोध टीका की रचना वि० सं० ११२६ में हुई है । श्राख्यानमणिकोष तो प्राकृत कथाओं का खजाना है । ईस्वी सन् १९३४ में इस ग्रन्थ पर श्राप्रदेवसूरि ने प्राकृत पद्यमय टीका लिखी है। इस ग्रन्थ के आख्यान सरस और सुम्दर हैं । १९४१ में हुई है । प्रशस्ति में प्रन्थकार ने
महावीर चरियं की रचना वि० सं० सका रचना काल स्वयं ही लिखा है-
वाससयाणं एगारसह विक्कमनिवस्स विगयाणं । गुयालीसे संवछरम्मि एयं निवद्धं ति ।। गा० ८५
इस कथा कृति में अन्तिम ती कर भगवान् महावीर का चरित अंकित है । रचयिता ने स्वयं बतलाया है कि संसार, शरीर और भोगों की श्रासक्ति को दूर करने तथा यथार्थ जीवनयापन करने की प्रेरणा प्राप्त करने के लिए अन्तिम तीर्थंकर का चरित वर्णन करता हूं। इस प्रसंग में महावीर के पिछले सत्ताईस भवों का वर्णन भी किया गया है ।
प्रारम्भ में बताया गया है कि अपर विदेह क्षेत्र में बलाहिवपुर में बानी, दयालु, धर्मात्मा श्रावक रहता था। वह किसी समय राजा की श्राज्ञा से अनेक व्यक्तियों के साथ लकड़ी लाने के लिए वन में गया। वहां उसने भीषण वन में लकड़ियां काटना प्रारम्भ किया। भोजन के समय उसे अनेक साधुनों सहित एक प्राचार्य मार्ग भूल जाने के कारण इधर-उधर भटकते हुए मिले। मुनियों को देखकर वह सोचने लगा कि मेरे बड़े भाग्य हैं, जिससे इन महात्मानों के दर्शन हुए। उसने उन मुनियों का दर्शन, वन्दन किया और पूछा -- भगवन् श्राप कहां से आये हैं और किस कार्य से इस भयंकर वन में परिभ्रमण कर रहे हैं । प्राचार्य ने धर्मलाभ का आशीर्वाद दिया और बतलाया कि हम लोग भिक्षाचर्या के लिए ग्रामान्तर को जा रहे थे, पर मार्ग भूल जाने से इधर आ गये हैं । सौभाग्य से श्रापसे भेंट हो गयी । श्राचार्य के इन वचनों को सुनकर उस भावक
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