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करता
ने उनको ग्रामान्तर में पहुंचा दिया। प्राचार्य से श्रात्मशोधन के लिए का उपदेश ग्रहण किया। उन्होंने उपदेश में बतलाया कि जो व्यक्ति धर्म और मर्यादा का पालन नहीं करता, वह समय निकल जाने पर पश्चात्ताप हं । दान, शील, तप और सद्भावनाएं व्यक्ति को वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में सभी प्रकार की सफलताएं प्रदान करती हैं ।
प्राचार्य के इस उपदेश से वह बहुत प्रभावित हुआ और धर्माचरण करने लगा । फलतः श्रायुक्षय कर वह अयोध्या नगरी के षट्खण्डाधिपति भरत चक्रवर्ती का पुत्र उत्पन्न हुआ । भगवान ऋषभदेव के समवशरण में श्रागामी तीर्थंकर, चक्रवर्ती और नारायण श्रादि के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने के लिए भरत ने पूछा--प्रभो, तीर्थ कर कौन-कौन होंगे ? क्या हमारे वंश में भी कोई तीर्थंकर होंगे ? भरत चक्रवर्ती के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने बतलाया -- इक्ष्वाकु वंश में मारीच तीर्थंकर पद प्राप्त करेगा ।
मारीच अपने सम्बन्ध में भगवान् की भविष्यवाणी सुनकर प्रसन्नता से नाचने लगा । उसने अनेक मत-मतान्तरों की स्थापना की। अतएव २६वें भव में अन्तिम तीर्थंकर
का पद पाया ।
उसने अहिंसा धर्म जीवन में नीति,
लेखक ने इस चरित ग्रंथ को रोचक बनाने को पूरी चेष्टा की है। कथावस्तु की सजीवता के लिए वातावरण का चित्रण मामिक हुआ है । भौतिक और मानसिक दोनों ही प्रकार के वातावरणों की चारुता इसका प्राण हैं । इससे पूर्व के कथाग्रंथों में बाह्य वातावरण का चित्रण तो पाया जाता है, पर मानसिक वातावरण का यथोचित निरूपण नहीं हो पाया है । अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही प्रकार के वातावरण में राग-द्वेष की अनुभूतियां किस प्रकार घटित होती हैं तथा मानवीय राग-विरागों की अनुभूतियों का वितान जीवन की सत् श्रसत् प्रवृत्तियों में किस प्रकार विस्तृत होता है, इसका लेखाजोखा बहुत ही सटीक उपस्थित किया गया है । मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की अभिव्यंजना पात्रों के क्रिया- व्यापारों द्वारा बहुत ही सुन्दर हुई है ।
इस कथाग्रन्थ में मनोरंजन के जितने तत्त्व हैं, उनसे कहीं अधिक मानसिक तृप्ति के साधन भी विद्यमान हैं । मारीच अपने अहंभाव द्वारा जीवन के आधारभूत विवेक और सम्यक्त्व की उपेक्षा करता है, फलतः, उसे पच्चीस बार अधिक जन्म धारण करना पड़ता है। श्रावक के जन्म में परोपकार करने से वह जीवनोत्थान की सामग्री का संचय करता है, पर अहंकार के कारण शील और सद्भावना की उपेक्षा करने से वह अपने संसार की सीमा बढ़ाता है । चरित ग्रन्थ होते हुए भी लेखक ने कथा में मार्मिक स्थलों की पूरी योजना की है । जिज्ञासा तत्त्व अन्त तक बना रहता है। जीवन के समस्त राग-विरागों का चित्रण बड़ी निपुणता के साथ किया गया है । वर्णनों की सजीवता कथा में गतिमत्त्व धर्म उत्पन्न करती है । यथा-
तस्स सुमो उववशो सव्वंगो बंगसुंदरी जुइयं । धम्मपि श्रकूरो मिरित्ति नामेण विक्खाओ ॥ सो तारुण्णो पत्तो पंचपाये भुंज मोए । नियवासाय वरगो दिट्ठेनियजणणिजणयाणं ॥
-म० च० पृ० ३, गा० ५०-५१ ।
भाषा सरल और प्रवाहमय है । यह समस्त ग्रन्थ पद्यमय है और कुल २,३८५ पद्म
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