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उससे नहीं होगा एवं यदि उसकी सर्वथा गति रूप से ही प्रवृत्ति स्वीकार की जाय तब भी उसमें प्रधानत्व का व्यवहार नहीं हो सकता । क्योंकि सर्वथा गति रूप से ही प्रधान की प्रवृत्ति होने से पदार्थों की सदा उत्पत्ति ही बनी रहेगी उनका विनाश कभी नहीं होगा और इस प्रकार सदा अविनाशी रूप से स्थित रहने वाले भाव - पदार्थ की उत्पत्ति भी दुर्घट है अतः न केवल स्थिति और न केवल गति रूप से हो प्रधान की प्रवृत्ति माननी उचित है किन्तु गति स्थिति उभयरूप से ही उसकी प्रवृत्ति का अंगीकार करना न्यायोचित है । इसी से उसमें प्रधानत्व का व्यवहार सुचारु रूप से किया जा सकता है । यह बात केवल प्रधान के ही लिये नहीं किन्तु दर्शनान्तरों में कल्पना किये गये अन्यान्य सृष्टिकारणों (ब्रह्म, माया, परमाणु आदि) के लिये भी यही विचार है । संसारोत्पत्ति के लिये उनकी भी यदि केवल स्थिति रूप से ही प्रवृत्ति मानी जाय तो उनमें किसी प्रकार की विकृति न होने से वे कारण नहीं ठहर सकते और यदि सर्वथा गति रूप से ही प्रवृत्ति मानें तब भी बे कारण नहीं बन सकते क्योंकि गति रूप से प्रवृत्ति मानने पर सदा विकृति ही बनी रहेगी अर्थात् उत्पत्ति की ही सदा विद्य मानता होगी विनाश कभी नहीं होगा इसलिये ब्रह्म, माया और परमाणु आदि जितने भी पदार्थ दर्शनान्तरों में विश्व की उत्पत्ति के निमित्त कल्पना किये गये हैं उनकी प्रवृत्ति भी स्थिति और गति उभय रूप से ही माननी युक्ति युक्त और न्याय संगत है ।
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