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________________ ( ४७ ) तया स्थिति अथवा गति रूप से ही नहीं किन्तु स्थितिगति उभयरूप से ही है । कारणान्तर में भी ऐसा ही मानना युक्ति युक्त है। इस बात को योगभाष्य में, सांख्य शास्त्र के प्राचीन आचार्यप्रवरपंचशिख की उक्ति में इस प्रकार से वर्णन किया है। [यत्रैदमुक्तं१ "प्रधानं स्थित्यैव वर्तमान विकाराकरणाद प्रधानं स्यात् तथा गत्यव वर्तमान विकार नित्यत्वाद प्रधानस्यात् । उभयथा चास्य प्रवृत्तिः प्रधान व्यवहारं लभते नान्यथा कारणान्तरेष्वपि कल्पितेष्वेष समानश्चर्च"] प्रधान की प्रवृत्ति में एकान्तता का निषेध करते हुए पञ्च शिखाचार्य कहते हैं-"प्रधान की यदि केवल स्थितिरूप से ही प्रवृत्ति मानें तब तो वह प्रधान ही न रहेगा, क्योंकि उसमें किसी प्रकार की भी विकृति न होने से किसी पदार्थ की भी उत्पत्ति (१) यत्रेद मुक्तमिति-ऐकान्तिकत्वं व्यासेधद्भिः .............. नान्यथा-एकान्ताभ्युपगमे न केवल प्रधाने कारणान्तरेष्वपि परब्रह्म तन्माया परमाण्वादिषु कल्पितेषु समानश्च! विचार: तान्यपिहि स्थित्यैववर्तमानानि विकाराकरणादकारणानिस्युः गत्यैव वर्तमानानि विकार नित्यत्वाद कारणानिस्युरिति च । [ वाचस्पति मिश्रः ] * स्थित्यैव प्रधानं वर्तते नगन्या यद्वा गत्यैव प्रधान वर्तते न स्थित्येस्यनयोः पक्षयोरेकतर पक्षावधारण रूपं नियम निराकुर्वद्भिः पञ्चशिखाचार्यैरे तदुक्त भित्यर्थः [टिप्पणी कारोवाल रामः ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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