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________________ ( ४६ ) सर्व मे तर्का भासं विजित्य ह्याकारं वस्तु व्यवस्थापयत् केनान्येन शक्यते वाधितुं नहिततोऽन्यद् वलवत्तरमस्ति प्रमाणं तन्मूलत्वात् सर्व प्रमापानाम् । [ शास्त्र दीपिका पृ० ३८७ ] इससे यह सिद्ध हुआ कि वस्तु का स्वरूप एकान्त नहीं किन्तु अनेकान्त है अर्थात् वह केवल धर्म या धर्मी रूप ही न होकर, तथा केवल जाति अथवा व्यक्ति रूप में ही न रहकर धर्म धर्मी जाति व्यक्ति उभयरूप है इसी रूप में उसकी प्रतीति होती है । इस से जैन दर्शन का यह उक्त सिद्धान्त, अन्य दार्श - निक विद्वानों को भी पूर्णतया अभिमत है ऐसा प्रमाणित हुआ । [ प्रधान की प्रवृत्ति में अनेकान्तता ] सांख्य दर्शन में प्रकृति को प्रधान के नाम से उल्लेख किया है, प्रधान समस्त विश्व का मूल कारण है । " प्रधीयते जन्यते विकार जातमनेनेति प्रधानम्” जिससे समस्त विकार जात कार्य मात्र उत्पन्न हो उसे प्रधान कहते हैं । परन्तु विश्व रचना के लिये प्रधान की जो प्रवृत्ति है वह एकान्त ( १ ) सामान्य विशेषाकारं वस्त्वस्तीति व्यवस्थापयति । Jain Education International [ टीकायां - सुदर्शनाचार्यः ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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