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जैनदर्शन तो इनको स्वतंत्र पदार्थ न मानकर वस्तु के धर्म विशेष ही स्वीकार करता है तथा वस्तु को केवल सामान्य अथच विशेष रूप हो न मानकर उसे सामान्य विशेष उभयात्मक मानना ही युक्ति युक्त और वस्तु स्वरूप के अनुरूप बतलाता है । अतः वस्तु केवल सामान्य-धर्मी अथवा विशेष धर्म स्वरूप ही नहीं किन्तु सामान्य विशेष उभय रूप है । यही जैन दर्शन को अभिमत है । इस सिद्धान्त का उल्लेख हमको पातंजल योग भाष्य में भी स्पष्ट मिलता है । उदाहरणार्थ निम्नलिखित वाक्य पर्याप्त हैं ।
(१) सामान्य विशेषात्मनोऽर्थस्य ॥ [ सभाधिपा० सू०७] (२) य एतेष्वभि व्यक्ता न भिव्यक्तेषु धर्मेष्वनुपाती सामान्य विशेषात्मा सोऽन्वयी धर्मी । [ विभूति पा० सू० १४]
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(१) स्वतोऽनुवृत्ति व्यतिं वत्तिभाजो भावान भावान्तर नेयरूपाः||४ [ अन्ययोगव्य हेमचन्द्राचार्यः ]
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(१) स्वभाव एवायं सर्वभाषानां यदनुवृत्ति व्यावृत्ति प्रत्ययौ स्वतएवजनयन्ति । "इतिन सामान्य विशेषयोः पृथक् पदार्थान्तरत्व कल्पनं न्याय्यम पदार्थ धर्मत्वेनैव तयोः प्रतीयमानत्वात् ।
[ स्याद्वाद मंजरी - मल्लिषेणसूरिः ]
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( २ ) अर्थ: सर्वेपि सामान्य विशेषोभयात्मकाः ।
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[ नय कर्णिका-विनयवि० उपा०
* सामान्यं धर्मिरूपं विशेषः धर्मः तदारमा उभयात्मक इत्यर्थः ।
[ टी० वाचस्यपति० ]
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