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( ४३ ) कार्य बुद्धि और पुरुष के आत्यन्तिक सारूप्य और वैरूप्य का निषेध करते हुए प्रकृति पुरुष के सम्बन्ध में अनेकान्तता को जिस प्रकार से भाष्यकार ने स्वीकार किया है उसका दिग्दर्शन कराते हैं। तथाहि__स पुरुषोबुद्धः प्रति संवेदी सवुद्धेन स्वरूपो नात्यन्तं विरूपइति । नतावत्सरूपः कस्मात् ज्ञाताज्ञात विषयत्वात्.... अस्तुतर्हि विरूपइति नात्यन्तं विरूपः कस्मात् शुद्धोऽप्यसौ प्रत्ययानपश्यो यतः प्रत्ययं बौद्धमनु पश्यति? इत्यादि।
इसका प्रकृतोपयोगी तात्पर्य मात्र इतना ही है कि पुरुष बुद्धि से न तो सर्वथा पृथक् है और न अपृथक् किन्तु भिन्नाभिन्न है । अवशिष्ट लेख में इसी बात की सप्रमाण उपपत्ति की गई है।
वस्तु की अनेकान्तता अथवा सामान्य विशेषत्व
वैशेषिक दर्शन में सामान्य और विशेष को स्वतंत्र पदार्थ मानकर उनको द्रव्याश्रित स्वीकार किया है। परन्तु अनेकान्तवाद प्रधान जैन दर्शन को यह सिद्धान्त अभिमत्त नहीं है।
(१) साधनपाद सु० २० का भाष्य)
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