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[ प्रकृति पुरुष का सारूप्य वैरूप्य ]
यह बात किसी भी दार्शनिक विद्वान् से छिपी हुई नहीं है कि सांख्य दर्शन मुख्यतया प्रकृति और पुरुष इन दो पदार्थो को ही स्वीकार करता है ! उनमें प्रकृति जड़ और पुरुष चेतन है तथा ये दोनों ही नित्य हैं अन्तर केवल इतना ही है कि पुरुष को तो वह कूटस्थ नित्य मानता है और प्रकृति को वह परिणामि नित्य स्वीकार करता है | परिणति होने पर भी जिसके मूल स्वरूप का विनाश न हो उसको नित्य कहते हैं + प्रकृति की अनेकान्तता का जिकर तो हम पीछे कर आये हैं अब प्रकृति के
+ द्वयीचेयं नित्यता कूटस्थ नित्यता परिणामिनित्यताच तत्र कूटस्थ नित्यतापुरुषस्य परिणामि नित्यता गुणानाम् । यस्मिन परिणस्यमाने तत्वं न विहन्यते तन्नित्यम् ।
( पातंजलभाष्य, केवल्यपाद सूत्र ३३)
नोट- - जैन दर्शन में भी
मुख्यतया जीव, थजीव चेतन और जड़ ये दोही पदार्थ माने हैं । परन्तु वह कूटस्थ नित्य किसी पदार्थ को नहीं मानता उसके मत में चेतन और जड़ सभी पदार्थ नित्यानित्य अथवा परिणामि नित्य हैं । इसका अधिक विवेचन हम भ्रात्मनिरूपण के किसी स्वतंत्र निबन्ध में करेंगे ।
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* तथाचयद् "ग्रप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकरूपं नित्यम्” इति नित्य लक्षगामाचक्षते तदपास्तं, एवं विधस्यकस्यचिद्वस्तुनोऽभावात् ।
( स्थाद्वाद मंजरी पृ० १६ )
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