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( ४१ ) भेद विवक्षया कटकादभिन्न स्य] सुवर्णस्य कुंडलादन्यत्वम् । तथाच कटककारी सुवर्णकारः कुडलाद भिन्नात्सुवर्णात् अन्यत्कुर्वन्नन्यत्व कारणम्" इत्यादि । इसका प्रकृतोपयोगी तात्पर्य मात्र इतना ही है कि कटककुंडलादि धर्मों से सुवर्ण रूप धर्मी, भिन्न अथच अभिन्न है भेद विवक्षा से वह भिन्न और अभेद विवक्षा से अभिन्न है।
इसके सिवाय योग दर्शन की, भोज देव कृत राजमार्तण्ड नामावृत्ति में भी धर्म धर्मी का भेदाभेद ही। स्वीकृत किया है ।
तंत्रिविधमपिधर्म योनुपतति, अनुवर्तते अन्वयित्वेन स्वीकरोति सशान्तोदिताव्यपदेश्य धर्मानुपाती धर्मात्युच्यते । यथा सुवर्ण रुचकरूप धर्म परित्यागेन स्वस्तिक रूप धर्मान्तर परिग्रहे सुवर्णरूपतयाऽनुवर्तमान तेषुधर्मेषु कथंचिद्भिन्नेषु धर्मीरूपतया सामान्यात्मना धर्मरूपतया विशेषास्मनास्थितमन्वयित्वेनावभासते ॥समाधिपाद सूत्र ॥१४॥ - भावार्थ-उक्त तीन प्रकार के।धर्मों को जो सम्बन्धी रूप से स्वीकार करता है वह धर्मी कहलाता है । जैसे रुचक ( घोड़े का जेवर ) धर्म को विना ही छोड़े, स्वस्तिक (कर्णभूषण) रूप धर्म को स्वीकार करने पर किसी प्रकार भिन्न धर्मों में सामान्यतः धर्मी रूप से और विशेषतः धर्म रूप से स्थित हुआ सुवर्ण (सोना) सम्बन्धी होकर ही प्रतीत होता है। गुरुकुल विद्यालय सेवि ५० भीमसेन शर्मा कृत भाषा टीका ]
धर्मिणश्च भिन्ना भिन्न रूपतया सर्वत्रानुगमः । समा० सू०-१५ ॥ भावार्थ-धर्मी का भेदाभेद रूप से ही सर्वत्र अनुगम होता है।
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