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भावार्थ- परमाणुओं से, घटादि पदार्थ एकान्ततया भिन्न अथच अभिन्न नहीं इनको यदि सर्वथा भिन्न स्वीकार करें तो इनके धर्म धर्मी भाव की उपपत्ति नहीं हो सकती। जिस प्रकार अत्यन्त भिन्न होने से गाय और अश्व का परस्पर में धर्म धर्मीभाव नहीं है उसी प्रकार अत्यन्त भिन्न मानने के कारण परमाणु और घटादि का धर्म धर्मी भाव भी निष्पन्न नहीं होगा एवं सर्वथा अभिन्न मानें, तो भी धर्म धर्मी भाव का उपपादन नहीं हो सकता, प्रथम तो धर्म और धर्मी यह भिन्न शब्द निर्देश ही नहीं होगा । दूसरे जब कि धर्मी के अतिरिक्त धर्म नाम का कोई पदार्थ हो नहीं तो फिर धर्म धर्मी भाव सम्बन्ध ही किसका ? अतः इनको एकान्ततया भिन्न अथच अभिन्न न मानकर कथंचित् भिन्न और कथंचित् — किसी अपेक्षा से अभिन्न मानना ही युक्ति युक्त है ऐसा मानने पर इनके धर्म धर्मी भाव और कार्य कारण सम्बन्ध की भी सम्यकतया उपपत्ति हो सकती है और किसी प्रकार के दूषणान्तर का भी समावेश नहीं हो सकता |
इसके सिवाय, “ अन्यत्वकारणं यथा सुवर्णस्य सुवर्णकारः " इस योग भाष्य की व्याख्या में भी आप लिखते हैं
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कटक कुण्डल केयूरादिभ्यो भिन्नाभिन्नस्य सुवर्णस्य भेद विवक्षया [ कटकादि भिन्नस्था
(१) टिप्पणीकार बालरामजी का कथन है कि इस [] चिन्ह के प्रन्तर्गत जो पाठ है वह मनको उचित प्रतीत नहीं होता अर्थात् वह अधिक हैएतचिन्हान्तर्गतं न स्वान्तमावर्जयति ।
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