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( ३९ ) करता है । जिस अनुभव ने हमारे सामने धर्मधर्मी की अनेकान्तता को उपस्थित किया है वही अनुभव हमारे समक्ष अनुगत रूप से धर्मी के एकत्व और व्यावृत्ति रूप से धर्मों के अनेकत्व के साथ साथ धर्मी के अविनाशित्व और धर्मों की विनश्वरता को भी उपस्थित करता है । हम तो अनुभव के अनुसार ही पदार्थों की व्यवस्था करने वाले हैं । अनुभव जिस बात की आज्ञा देगा उसी को हम स्वीकार करेंगे । अनुभव का उल्लंघन करके अपनी स्वतंत्र इच्छा से वस्तु व्यवस्थापन के लिये हम कभी तैयार नहीं हैं।
इसके अतिरिक्त मिश्रजी ने एक और स्थान में भी इसी बात को प्रकारान्तर से लिखा है उसमें भी आपने धर्म धर्मी के भेदा- . भेद को ही सर्वथा युक्ति संगत बतलाया है।
स्मृति परिशुद्धौ स्वरूप शून्येवार्थ मात्रनिभासा निर्वितर्का" इस सूत्र के भाष्य की व्याख्या करते हुए मिश्रजी लिखते हैं
नैकान्ततः परमाणुभ्यो भिन्नोघटादिरभिन्नो वा भिन्नत्वे गवाश्चचद् धर्म धर्मिभावानुपपत्तेः । अभिन्नत्वे धर्मिरूपवत्तदनुपपत्तेः । तस्मात् कथं चिदभिन्नः कथं चिदभिन्नश्चास्थेय स्तथाच सर्वमुपयद्यते"
[१-विभूतिपाद सू० ४३]
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