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________________ ( ३८ ) वयं न तमतिवयं स्वेच्छया धर्मानुभवान् व्यवस्थापयितुमीश्मह इति ॥ भावार्थ-अनुभव ही धर्म धर्मी के भेदाभेद को सिद्ध कर रहा है । धर्म और धर्मी आपस में न तो सर्वथा भिन्न हैं और ना ही सर्वथा अभिन्न । इनको यदि अभिन्न मानें तो, सुवर्ण धर्मी और हार मुकटादि धर्म, इस लौकिक व्यवहार का लोप होजायगा मृत्तिका रूप धर्मी के घट शराब आदि धर्मों में जो पारस्परिक भेद तथा भिन्न २ कार्य की साधकता देखी जाती है उसका भी उच्छेद हो जायगा । एवं सर्वथा भिन्न भी नहीं मान सकते यदि धर्मी से धर्मो को सर्वथा भिन्न ही स्वीकार किया जाय तो इनका कार्य कारण सम्बन्ध ही दुर्घट है तब तो सुवर्ण से हार मुकुटादि और मृत्तिका से घट शराबादि कभी उत्पन्न नहीं होने चाहिये तथा ना ही हार मुकुटादि और घट शरावादि सुवर्ण एवं मृत्तिका के धर्म हो सकते हैं क्योंकि ये दोनों (धर्म धर्मी) एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न हैं । गाय और घोड़ा आपस में सर्वथा भिन्न हैं। जिस प्रकार इनका धर्म धर्मी भाव और कार्य कारण भाव संबंध नहीं है उसी प्रकार सुवर्ण, हार मुकुटादि और मृत्तिका घट शराबादि का धर्म धर्मी भाव और कार्य कारण सम्बन्ध भी अशक्य हो जायगा परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। सुवर्णरूप धर्मी से हार मुकुटादि और मृत्तिका से घट शरावादि की उत्पत्ति का होना सर्वानुभवसिद्ध है । इसलिये धर्म धर्मी के आत्यन्तिक भेद और अभेद का निरास करके उनके भेदाभेद को ही अवाधितरूप से अनुभव, हमारे सामने सम्यक्तया उपस्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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