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ही रेखा, शत के स्थान में शत, दश के स्थान में दश और एक के स्थान में एक रूप से निर्दिष्ट होती है, और जैसे एक ही स्त्री भिन्न २ पुरुषों की अपेक्षा से माता, पुत्री और भगिनी कही जाती है। इसी प्रकार एक ही धर्मी रूप वस्तु का धर्म लक्षण और अवस्था भेद से विभिन्नतया निर्देश होता है वह भी अवस्थान्तर से न कि द्रव्यान्तर से । तात्पर्य कि धर्म धर्मी का भेदाभेद भाष्यकार को अभिमत है इसमें संदेह नहीं।
आचार्य वाचस्पति मिश्र तो, इसी स्थल में धर्म धर्मी के भेदाभेद को बिलकुल ही स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करते हैं । तथाहि "अनुभव एव ही धर्मिणो धर्मादीनां भेदाभेदी व्यवस्थापयति । नङ्ग कान्तिके भेदे धर्मादीनां धर्मिणो धर्मीरूपवद् धर्मादित्वं, नाप्यकान्तिके भेदे गवाश्च वद् धर्मादित्वंसचानुभवोऽनकान्तिक त्व मवस्थापयन्नपि धर्मादिषपजनापाय धर्मक ध्वपि धर्मिण मेकमनुगमयन धर्माश्च परस्परतोव्या वर्तयन् प्रत्यात्ममनुभूयत इति । तदनुसारिणोx
(१) अत्रैवलौकिक दृष्टान्तमाह-यथैका रेखा इति । यथातदेवरेखा स्वरूपं तत्तत्स्थानापेक्षया शतादित्वेन ब्यपदिश्यत एवं तदेवधर्मिस्वरूपं ततद्ध मलक्षणावस्था भेदेनान्यत्वेन प्रति निर्दिश्यत इत्यर्थः ( वाचस्पतिमिश्रः) x-अनुभवानुसरण शीलाइत्यर्थ । तमतिवयं-अनुभवातिकभ्येत्यर्थः
(टि० बालरामः)
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