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( ३६ ) ही हैं । धर्म, धर्मी का स्वरूप मात्र ही है । धर्म लक्षण अवस्था रूप धर्मों के द्वारा सर्वत्र धर्मी की ही विकृति काबोध कराया जाता है। तथा धर्मी में रहे हुए धर्म का ही अतीतानगत और वर्तमान काल में आकार भेद से भेद होता है । द्रव्य रूप धर्मी का नहीं । जैसे रुचक स्वस्तिकादि नाना विध आकारों के परिवर्तन होने पर भी सुवर्ण असुवर्ण नहीं हो जाता किंतु सुवर्ण ही बना रहता है इसी प्रकार धर्मों में फेरफार होने पर भी धर्मी अनुगत रूप से ज्यों का त्यों ही बना रहता है इत्यादि। इस कथन से धर्म धर्मी की अनेकान्तता प्रमाणित हुई । परन्तु अनेकान्तता का अवलम्बन करने पर धर्म लक्षण अवस्थाओं के भेद से धर्मी का भी भेद होजायगा ऐसा होने पर उसकी अनुगत रूप से जो प्रतीति होती है वह न होगी इसलिये भाष्यकार कहते हैं "न धर्मी त्र्यध्वा इत्यादि अर्थात् उक्त लक्षण परिणाम धर्मों का होता है धर्मी का नहीं । तात्पर्य कि घटादि रूप धर्म ही, अतीतानागतादि काल रूप लक्षण परिणाम को धारण करते हैं मृत्तिका रूप धर्मी नहीं। इसलिये वे घटादि रूप धर्म ही नव पुराण आदि अवस्था को प्राप्त होते हुये अवस्थान्तर से ही
भिन्न २ देखे जाते हैं न कि द्रब्यान्तर से । द्रव्य रूप धर्मी का तो . सभी अवस्थाओं में अनुगत रूप से ही भान होता है। जैसे एक
* ननु सत्यप्यनेकान्ताभ्युपगमे भेदोस्तीति धर्मलक्षणावस्थान्यत्वेतदभिन्नस्य धर्मिणोप्यन्यत्व प्रसंगः। सचनेष्यते तदनुगमानुभव विरोधाव-इत्यत प्राह न धमींच्यध्वा इति । (वाचस्पतिमिश्रा)
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