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________________ ( २६ ) माना अथवा स्वीकार किया जाय तभी वह न्याय संगत कहलायेगा अन्यथा जिस रूप में वस्तु का भान हो रहा है उस रूप में यदि उसका निर्देश न किया जाय तो उसके वास्तविक स्वरूप का यथार्थतया ज्ञान नहीं हो सकता और न वह ज्ञान सम्यक् ज्ञान कहला सकता है । अतः वस्तु का व्यापक स्वरूप उत्पादव्यय ध्रौव्य अथवा द्रव्य पर्यात्मक है तथा द्रव्य और पयर्याय एक दूसरे से न सर्वथा भिन्न और न अभिन्न किन्तु कथंचित् भिन्ना भिन्न हैं । इसी प्रकार (ग) तथाहि सर्व वस्तु द्रव्यात्मना नोत्पद्यते विपद्यतेवा परिस्फुटमन्वय दर्शनात् ।......."ततो द्रव्यात्मना स्थितिरेव सर्वस्य वस्तुनः । पर्यायात्मना तु सर्ववस्तृत्त्पद्यते विपद्यते च अस्खलित पर्यायानुभव सद् भावात् । [इति रत्नाकरावत्तारिकायां रत्नप्रभाचार्यः पृ० ८४ परि०।। (घ) येनोत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं यत्सत्त दिष्यते । अनन्त धर्मात्मकं वस्तु तेनोक्तं मानगोचरः ॥५७॥ [षड्दर्शन समुच्चये हरिभद्रसूरिः ] वस्तु तन्वं चोत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मकम् । इति व्याख्याकारोमणिभद्रः पृ० ५ (ड) तस्य विषयः सामान्य विशेषाद्यनेकान्तात्मकं वस्तु । [इति प्रमाणनयतत्वालोका लंकारे वादिदेवसूरिः परि०५ ] (च) अर्थाः सर्वेऽपिसामान्य विशेषोभयात्मकाः। सामान्यं तत्र जात्यादि विशेषाश्च विभेदकाः॥३॥ [ नयकर्णिकायां विनय विजयोपाध्यायः] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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