________________
( २५ )
इनमें भिन्नता भी देखी जाती है। दो में से किसी एक का भी सर्वथा त्याग अथवा स्वीकार नहीं किया जा सकता । अतः दोनों की सत्ता को सापेक्ष दृष्टि से स्वीकार करना ही न्याय संगत और वस्तु स्वरूप के अनुरूप प्रतीत होता है ।
जैन दर्शन के अनेकान्तवाद का यही तात्पर्य है । इस अनेकान्तवाद का अन्यान्य दार्शनिक विद्वानों ने भी कहाँ और किस रूप में आदर किया है इसका जिकर हम आगे चलकर करेंगे । कुछ पहले किया भी है + इस सारी विवेचना का सारांश यह है कि जैन दर्शन को वस्तु एकान्त रूप से अभिमत नहीं उसकी दृष्टि में वस्तु का स्वरूप अनेकान्त है' । तथा एकान्त दृष्टि पदार्थ के एक देश व्यापिनी और अनेकान्त दृष्टि पदार्थ को सम्पूर्ण रूप से पर्यालोचित करती है इसलिये जो पदार्थ जिस रूप में भासमान होता हो उसको उसी रूप में
+ देखो पृष्ठ ८ । १० । १२ । १६
१ – ( क ) अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचर: सर्व संविदाम् ।
-
एक देश विशिष्ठोऽर्थो नयस्य विषयो मतः ॥ २६॥
( न्यायावतारे वादि सिद्धसेन दिवाकरः ) किंचानेकान्ताम्युपगमेसत्येषगुणः - परस्पर विभक्तेषु संयोगि संयोग समवायि समवाय गुण गुणावयवावयवि व्यक्ति सामान्यादिषु संयोग समवाय गुण्यवयवि सामान्यादीनां संयोगि समवायि गुणावयव विशेषादिषु वर्तन चिन्तायां यद्दृषण जाल मुपनिपतत्ति तदपि परिहृतं भवति । एकान्त भेदएव तदुपपत्तेः । अनेकान्तेतुस्थानाभावात् ॥
[ न्यायावतार टीकायां सिद्धर्षिः ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org