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इस प्रकार सापेक्षदृष्टि से वस्तु में नित्यानित्यत्व आदि विरुद्ध धर्मों का अविरोध व्यवस्थापन करने वाले सिद्धान्त को ही जैन दर्शन में अनेकान्तवाद, स्याद्वाद अथवा अपेक्षावाद के नाम से उल्लेख किया है। पदार्थ के ध्रौव्य स्वरूप को द्रव्य और विनाशी स्वरूप को पर्याय नाम देकर वस्तु को द्रव्य पर्यायात्मक भी इसी प्रकार (सापेक्ष दृष्टि से) माना है। इसलिये जैन दर्शन का वस्तु को द्रव्यपर्यायात्मक अथवा नित्यानित्य स्वीकार करना किसी प्रकार से भी युक्ति विधुर नहीं कहा जा सकता।
[ वस्तु स्वरूप अनेकान्त है ] यह बात ऊपर कही जा चुकी है कि जैन दर्शन को कोई भी वस्तु एकान्त नित्य अथवा अनित्य रूप से अभिमत नहीं है। जिस प्रकार पदार्थ में नित्यत्व का भान होता है उसी प्रकार उसमें अनित्यता के दर्शन भी हम करते हैं । जब कि हमारा अनुभव ही स्पष्ट रूप से पदार्थ में नित्यानित्यत्व की सत्ता को बतला रहा है तो एक को न मानना और दूसरे को मानना यह कहाँ का न्याय है । पदार्थ को केवल एकान्त रूप से स्वीकार करने पर उसके यथार्थ स्वरूप का पूर्णतया भान नहीं हो सकता क्योंकि एकान्त दृष्टि अपूर्ण है । यदि पदार्थ को एकान्त नित्य ही मानें तो उसमें किसी तरह की परिणति नहीं होनी चाहिये परन्तु होती है उदाहरणार्थ सुवर्ण अथवा मृत्तिका को ले लीजिये ? कटक कुंडल और घट शराब आदि सुवर्ण और मृत्तिका के ही
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