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कुमारिल भट्ट के इस कथन से भी पदार्थ का व्यापक स्वरूप उत्पाद व्यय और ध्रौव्यात्मक ही सिद्ध होता है। हमारे ख्याल में अब यह बात आसानी से समझ में आ सकती है कि वस्तु, उत्पत्ति और विनाश युक्त होने पर भी स्थिति शील, एवं स्थिति युक्त होने पर भी उत्पाद विनाश शील है। वस्तु में उत्पाद विनाश और ध्रुवता ये तीनों ही धर्म अवाधित रूप से अपनी सत्ता का अनुभव करा रहे हैं इनमें से किसी एक का भी सर्वथा अपलाप नहीं हो सकता। यदि उत्पत्ति न मानी जाय तो विनाश का कोई अर्थ ही नहीं हो सकता उत्पत्ति के मानने पर विनाश का स्वीकार करना ही पड़ेगा तथा उत्पाद विनाश के स्वीकार करने पर तदाधारभूत ध्रौव्य के माने बिना कोई गति ही नहीं। इसलिये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों ही धर्म वस्तु में स्वभाव सिद्ध हैं यह सुचारु रूप से प्रमाणित हो गया । बस यही पदार्थों का व्यापक स्वरूप है। यह सिद्धान्त केवल जैन दर्शन का ही नहीं किन्तु अन्यान्य दार्शनिक विद्वानों को भी यह अभिमत है इसका जिक्र भी ऊपर आ चुका। .
[द्रव्य पर्याय अथवा नित्यानित्यत्व]
वस्तु को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक कहने से उसके दो स्वरूप प्रमाणित होते हैं । एक विनाशी और दूसरा अविनाशी । उत्पाद व्यय उसका विनाशी स्वरूप और ध्रौव्य अविनाशी स्वरूप है । जैन परिभाषा में पदार्थ के विनाशी स्वरूप को पर्याय और अविनाशी स्वरूप को द्रव्य के नाम से अभिहित किया है । यही
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