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( १८ ) तत्त्व दर्शनान्तरों में धर्म धर्मी, आकृति और द्रव्य आदि के नाम से निर्दिष्ट हुआ है।
हम ऊपर बतला चुके हैं कि जैन दर्शन किसी भी पदार्थ को एकान्ततया नित्य अथच अनित्य नहीं मानता किन्तु उसके वहां सापेक्षतया नित्यानित्य उभय रूप ही पदार्थ स्वीकार किया गया है । वस्तु का जो अविनाशी स्वरूप है उसकी अपेक्षा से वस्तु नित्य और विनाशी स्वरूप की अपेक्षा से वह अनित्य अतः नित्यानित्य उभय रूप है । इस बात को निम्नलिखित एक उदाहरण द्वारा पाठक समझने का थोड़ा सा कष्ट उठावें ।
हम प्रतिदिन देखते हैं कि कुम्हार एक मृत्पिण्ड से घट शराव (प्याला) आदि कई किस्म के बर्तन तैयार करता है। उसने जिस मृत्पिण्ड से एक सुन्दराकृति का घड़ा तैयार किया है उसी मृत्पिण्ड से वह सिकोरा, प्याला आदि और भी अनेक किस्म के भाजन बनाता या बना सकता है। कल्पना करो कि वह कुम्हार यदि उस घड़े को तोड़ कर उसका सिकोरा या प्याला आदि कोई और बर्तन बना कर हमको घड़े के नाम से दिखावे या देवे तो हम उसको घड़ा कहने अथवा घट साध्य प्रयोजनजलाहरणादि-के निमित्त ग्रहण करने को कदापि तैयार न होंगे । अब देखना यह है कि ऐसा भेद क्यों ? जबकि एक ही मृत्तिका रूप द्रव्य, घड़ा सिकोरा और प्याला आदि संज्ञाओं से व्यवहृत होता है, तथाच जिस मृत्तिका से घट बनाया गया वही मृत्तिका जब कि सिकोरे और प्याले में मौजूद है तो इनका घट के नाम से विधान क्यों न किया जाय । इसका
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