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( १५ ) इसके अतिरिक्त हरिभद्र सूरि ने एक और लौकिक उदाहरण से पदार्थ को उत्त्पाद व्यय और ध्रौव्यात्मक सिद्ध किया है वे कहते हैं कि जिस पुरुष को केवल दुग्ध ग्रहण का नियम है वह दधि नहीं खाता और जिसको दधि का नियम है वह दुग्ध का ग्रहण नहीं करता परन्तु एक पुरुष ऐसा है जिसने गोरस का ही त्याग कर दिया है, वह न दुग्ध को ग्रहण करता है और नाही दधि भक्षण करता है । इस सुप्रसिद्ध व्यावहारिक नियम से दुग्ध का विनाश, दधि की उत्पत्ति और गोरसकी स्थिरता ये तीनों ही तत्त्व भली भांति प्रमाणित हो जाते हैं । दधि रूप से उत्पाद, दुग्ध रुप से विनाश और गोरस रूप से ध्रौव्य ये तीनों ही धर्म उक्त वस्तु में स्पष्ट प्रतीत होते हैं । इसी आशय से सुप्रसिद्ध जैन तार्किक, उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषत् में लिखा है
उत्पन्नं दधि भावेन, नटं दुग्धतया पयः । गोरसत्वात् स्थिरंजानन , स्याद्वाविड्जनोपिकः ॥४४॥
[ महामति कुमारिल] मीमांसा दर्शन के पारगामी महामति कुमारिलभट्ट ने भी पदार्थों के उत्पाद व्यय और ध्रौव्य स्वरूप को मुक्त कंठ से
(१) पयोबतो न दध्यत्ति न पयोति दधि व्रतः । अगोरस बूतोनोभे, तस्माचत्वं त्रयात्मकम् ।।
[शा० वा० स० स्त० ७ श्लो० ३]
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