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( १३) "घटमौलि१ सुवर्णार्थी, नाशोत्पत्ति स्थिति वलम् । शोक प्रमोद माध्यस्थ्य, जनो याति सहेतुकम् ।।
कल्पना करो कि किसी वक्त तीन मनुष्य मिल कर किसी सुनार या सर्राक को दुकान पर गये उनमें से एक को सुवर्ण-घट, दूसरे को मुकुट और तीसरे को मात्र सुवर्ण की आवश्यकता है। वहां जाकर वे क्या देखते हैं कि सुनार एक सोने के बने हुए घड़े को तोड़ कर उसका मुकुट बना रहा है । सुनार के इस
* शास्त्रवार्ता समुच्चय स्त० ७ श्लो० २ । पू. २२३
इसकी स्याद्वाद कल्पलता नामकी टीका में जैनविद्वान यशो विजय जी इसका अर्थ इस प्रकार लिखते हैं__ घट मौलि सुवर्णार्थी सन्-प्रत्येकं सौवर्ण घट मुकुट सुवर्णान्यभिलपन् एकदा तन्नाशोत्त्पाद स्थितिषु सतीषु शोक प्रमोदमाध्यस्थ्यं सहेतुकं याति । तदैवहि घटार्थिनो घटनाशाव शोकः मुकुटार्थिनस्तु तदुत्पादात्प्रमोदः सुवर्णार्थिनस्तु पूर्वनाशाऽपूर्वोत्पादा भावात् नशोको नवाप्रमोदः किन्तु माध्यस्थ्य मिति दृश्यते । इदं च वस्तुनस्त्रैलक्षण्यं लक्षणं बिना दुर्घटम घटनाशकाले मुकुटोत्पादानभ्युपगमे तदर्थिनः शोकानुत्पत्तेः घटादि विवर्त्तातिरिक्त सुवर्ण द्रव्यानभ्युपगमे च सुवर्णार्थिनोमाध्यस्थ्यानुपपत्तेः ।
(१) इसी भाव को व्यक्त करने वाला "पंचाशत्ती का एक और श्लोक भी कई एक जैन ग्रन्थों में लिखा हुमा देखा जाताहै वह इस प्रकार है। .
"प्रध्वस्ते कलशे शुशोच तनया मौलौ समुत्पादिते । पुत्रः प्रीति मुवाह कामापिनृपः शिवाय मध्यस्थताम् ।। पूर्वाकारपरिक्षयस्त पराकारोदयस्तद्वयाधारस्यैक इतिस्थितं त्रयमयं तत्त्वं तथा प्रत्ययात् ॥
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