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( १२ ) [तत्र धर्मस्य धर्मिणि वर्तमानस्यैवाध्वस्खतीतानागत वर्तमानेषु भावान्यथात्वंभवति न द्रव्यान्यथावं यथा सुवर्ण भाजनस्य भित्वाऽऽन्यथा क्रियमाणस्य भावान्यथात्वं भवति न सुवर्णान्य थावमिति। [विभूतिपाद सू० ११ का भाष्य] ___जैसे रुचक स्वस्तिकादि अनेक विध आकारों को धारण करता हुआ भी सुवर्ण पिंड अपने मूल स्वरूप का परित्याग नहीं करता, तात्पर्य कि रुचक स्वस्तिकादि भिन्न २ आकारों के निर्माण होने पर भी सुवर्ण असुवर्ण नहीं होता किन्तु उसके आकार विशेष ही अन्यान्य स्वरूपों को धारण करते हैं । इसी प्रकार धर्मी में रहने वाले धर्मों का ही अन्यथा भाव-भिन्न २ स्वरूप परिवर्तन होता है धर्मिरूप द्रव्य का नहीं । धर्मी द्रव्य तो सदा अपनी उसी मूल स्थिति में रहता है । तथाच धर्मों का उत्पाद
और विनाश एवं धर्मी का ध्रौव्य, अतः उत्पत्ति विनाश और स्थिति रूप वस्तु की सिद्धि में कोई न्यूनता प्रतीत नहीं होती।
हरिभद्रसूरिः जैन विद्वान् हरिभद्र सूरि ने पदार्थों के उत्पाद व्यय और ध्रौव्य को एक और ही युक्ति द्वारा प्रमाणित किया है। आप लिखते हैं
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(१) भावः संस्थान भेदः सुवर्णादेर्यथा भाजनस्य रुचक स्वस्तिक ध्ययदेश भेदो भवति तन्मात्र मन्यथा भवति नतु द्रव्यसुवर्ण मसुवर्णतामुपैति पस्यन्तमेदा भावादिति [ टीकाकारो वाचस्पति मिश्रः ।]
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