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वही मृत्पिड के विनष्ट होने पर घट के आकार में दृष्टि गोचर होती है अतः उत्पाद विनाशस्वभाविधर्मों में मृत्तिका रूप द्रव्य को सर्वत्र अनुगत होने से वह धर्मी कहाता है। एक और प्राचीन विद्वान का कथन है ] कि द्रव्य के स्वरूप का कभी भेद नहीं होता किन्तु उसके गुणों का भेद होता है। इससे सिद्ध हुआ कि पदार्थों में उत्पति विनाश और स्थिति ये तीनों धर्म बराबर रहते हैं।
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[व्यासदेव ]
ऋषि व्यासदेव प्रणीत पातञ्जलयोग भाष्य में भी उक्त सिद्धान्त का ही निम्न लिखित शब्दों में जिकर पाया जाता है। तथाहि
नोट-उक्त स्थल की टीका इस प्रकार है
द्रव्यस्यमृदादेागमः उत्पत्तिः नापायः विनाशः किन्तु रूपादीना माकारस्य चागमापायौ भवतः । घटादिशब्देन घटाद्याकृतिज्ञेया । अत्रश्री भट्टपादस्य सम्मतिमाह-प्राविर्भावेति-उत्पत्ति विनाश शालिषु धर्मेषु यद. नुयायि-अनुस्यूतं तद्धर्मि । यथाश्याम रक्तादि रूपेषु पिंड कपालाद्याकृतिषु चानुस्यूतं मृद् द्रव्यमेव धर्मि । किंच धर्मग्रहणात प्राक् यत्र यद्विषयि के ज्ञानं स्यात् तद्धर्मि । यथा मंदांधकारे रूपादि ग्रहणात प्रथममेव यद्गृह्यते घट द्रव्यं तद्धीव्यर्थः ।..................."प्रत्र प्रमाणांतर माहयादशमिति । यादृशम्-मागमापायिषु धर्मेष्वनुस्यूतं द्रव्यमस्माभिरुकं वाहशस्यैवसर्वस्य द्रव्यस्यगुणादिरेव भिद्यते न स्वरूप मपिभिद्यत इत्यर्थः ।
[टीकाकारः सुदर्शनाचार्यः]]
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