________________
( १० )
[ मीमांसक धुरीण पार्थसार मिश्र ]
मीमांसा दर्शन के धुरंधर पंडित पार्थसार मिश्र ने अपने सुप्रसिद्ध प्रन्थ शास्त्र दीपिका में भी इस बात का सुचारू रूप से उल्लेख किया है ।
आप लिखते हैं
( १ ) अतो न द्रव्यस्य कदाचिदागमापायो वा घटपट गवाश्व शुकु रक्ता द्यवस्थानामेवागमापायौ - आहच
"आविर्भाव तिरोभाव धर्मकेष्वनुयायि यत् । तद्धर्मी तत्र चज्ञानं प्राग्धर्मग्रहणात् भवेत् ॥ तथा च
यादृशमस्माभिरभिहितं द्रव्यं तादृशस्यैवहि सर्वस्य गुणएव भिद्यते न खरूपम् ।
अर्थात् — द्रव्य - मृत्तिकादिरूप का कभी उत्पत्ति और विनाश नहीं होता किन्तु उसके रूप और आकारादि विशेष का ही उत्पादविनाश होता है । [ आचार्य कुमारिल भट्ट कहते हैं ] उत्पत्ति और विनाश शील धर्मों में अन्वयरूप से जिसकी उपलब्धि होती है वह धर्मी है । मृत्पिंड का ध्वंस और घटकी उत्पत्ति तथा श्यामवर्ण का विनाश और रक्तवर्ण का उत्पाद आदि उत्पत्ति विनाश के सिलसिले में मृत्तिका रूप द्रव्य का बराबर अनुभव होता है। जो मृत्तिका पिण्डाकार में रहती है
(१) शास्त्रदीपिका पृ० १४६-४७ [ विद्याविलास प्रेस काशी ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org