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खदिरांगार सदृशे कुण्डले भवतः । प्राकृति रन्याचान्याचभवति द्रव्यं पुनस्तदेव प्राकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिष्यते।
अर्थात्-द्रव्य-मूलपदार्थ-नित्य और आकृति-आकारपर्याय-अनित्य हैं । सुवर्ण किसी एक विशिष्ट आकार से पिण्ड रूप बनता है पिण्ड का विध्वंस करके उसके रुचक-दीनार-मोहरबनाये जाते हैं, रुचकों का विनाश करके कड़े और कड़ों के ध्वंस से स्वस्तिक बनाते हैं एवं स्वस्तिकों को गलाकर फिर सुवर्ण पिण्ड तथा उसकी विशिष्ट आकृति का उपमर्दन करके खदिरांगार सदृश दो कुण्डल बना लिये जाते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि आकार तो उत्तरोत्तर बदलते रहते हैं परन्तु द्रव्य वास्तव में वही है आकृति के विनष्ट होने पर भी द्रव्य शेष रहता है।
महाभाष्यकार के इस कथन से द्रव्य की नित्यता और पर्यायों की विनश्वरता ये दोनों बातें असंदिग्धरूप से प्रमाणित होगई। तथा द्रव्य का धर्मी और पर्याय का धर्म रूपसे भी निर्देश होता है । सुवर्ण तथा मृत्तिका रूप द्रव्य धर्मी, कटक कुंडल और घट शराब आदि उनके धर्म कहे व माने जाते हैं। इनमें धर्मीअविनाशी और धर्म परिवर्तन शील हैं, क्योंकि सुवर्ण तथा मृत्तिका के कटक कुंडल और घटशराबादि धर्म तो उत्पन्न होते हैं और विनष्ट होते हैं परन्तु सुवर्ण तथा मृत्तिकारूप धर्मी द्रव्यतो धर्मों के उत्पाद और विनाशकाल में भी सदा अनुगत रूप से ही अपनी स्थिति का भान कराते हैं।
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