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हुआ कि उत्पत्ति और विनाश वस्तु के केवल आकार विशेष का होता है न कि मूल वस्तु का । मूल वस्तु तो लाखों परिवर्तन होने पर भी अपनी स्वरूप स्थिरता से सर्वथा च्युत नहीं होती । कटक कुण्डलादि, सुवर्ण के केवल आकार विशेष हैं इन आकार विशेषों काही उत्पन्न और विनष्ट होना देखा जाता है । इनका मूल तत्व सुवर्ण तो उत्पत्ति विनाश दोनों से अलग है । इस उदाहरण से यह प्रमाणित हुआ कि पदार्थ में उत्पत्ति विनाश और स्थिति ये तीनों ही धर्म स्वभाव सिद्ध हैं। किसी भी वस्तु का आत्यन्तिक विनाश नहीं होता । वस्तु के किसी आकार विशेष का विनाश होने से यह नहीं समझना चाहिये कि वह बिल्कुल नष्ट हो गई, नहीं ? वह अपने एक नियत आकार को छोड़ कर आकारान्तर को धारण कर लेती है अतः मूल स्वरूप से वस्तु न तो सर्वथा नष्ट होती है और न ही सर्वथा नवीन उत्पन्न होती है किन्तु मूल वस्तु के आकार में जो विशेष २ प्रकार के परिवर्तन होते हैं वे ही उत्पत्ति और विनाश के नाम से निर्दिष्ट किये जाते हैं । मूल द्रव्य तो आकार विशेष की उत्पत्ति समय में भी स्थित है और उसके - आकार विशेष के विनाश काल में भी विद्यमान है अत: जगत के सारे ही पदार्थ उत्पत्ति विनाश और स्थिति शील हैं, यह बात भलीभांति प्रमाणित हो जाती है । इसी आशय से जैन ग्रन्थों में " उत्पाद' व्यघ्रौव्य युक्तं सत्" यह पदार्थ का लक्षण निर्दिष्ट किया है ।
(१) उमास्वाति विरचित तत्वार्थाधिगम सूत्र ग्र० ५ स्० २६ भाष्यम् - उत्पाद व्ययौ धौव्यंच युक्तं सतो लक्षणम् | यदुत्पद्यतेय द्रव्ययेति पञ्चध्रुवं तत्सत् मतोऽन्यदसदिति ॥
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