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________________ तब तो बड़ा अनर्थ होगा वह हर एक का पिता. ही सिद्ध होगा परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है वह पिता भी है और पुत्र भी अपने पुत्र की अपेक्षा वह पिता है और स्वकीय पिता की अपेक्षा वह पुत्र कहलायेगा । इसी प्रकार भिन्न २ अपेक्षाओं से इन सभी उक्त संज्ञाओं का उसमें निर्देश किया जा सकता है। जिस तरह अपेक्षा भेद से एकही. देवदत्त व्यक्ति में पितृत्व, पुत्रत्व ये दो विरोधी धर्म अपनी सत्ता का अनुभव कराते हैं उसी तरह हर एक पदार्थ में अपेक्षा भेद से अनेक विरोधि धर्मों की स्थिति प्रमाण सिद्ध है। यह दशा सब पदार्थों की है उनमें निस्यत्व आदि अनेक धर्म दृष्टि गोचर होते हैं इसलिये पदार्थ का स्वरूप एक समय में एक ही शब्द द्वारा सम्पूर्णतया नहीं कहा जासकता और नाही वस्तु में रहने वाले अनेक धर्मों में से किसीएक ही धर्म को स्वीकार करके अन्य धर्मों का अपलाप किया जा सकता है। अतः केवल एक ही दृष्टि विन्दु से पदार्थ का अवलोकन न करते हुए भिन्न २ दृष्टि विन्दुओं से ही उसका अवलोकन करना न्याय संगत और वस्तु स्वरूप के अनुरूप होगा बस, संक्षेप से जैनदर्शन के अनेकान्तवाद का यही तात्पर्य हमें प्रतीत होता है । जैनदर्शन के इस सिद्धान्त का वैदिक दर्शनों में किस रूप में और किस प्रौढ़ता से समर्थन किया है इसका दिग्दर्शन हम आगे चल कर (+)--एकस्यैव पुसस्तत्तदुपाधि भेदात पितृत्व, पुत्रत्व मातुलत्व, भागनेयत्व, पितृव्यन्त्र, भ्रातृत्वादि धर्माणां परस्पर विरुद्धानामपि प्रसिद्धि दर्शनाच । ( इति स्याद्वादमंजरी कारो वल्लिभेणाचार्यः ) कारिका २३ पूछ १५५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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