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कथंचित् किसी अपेक्षा से स्यात् यह सर्वथास्व-सर्वथापनका निषेधक अनेकान्तताका द्योतक कथंचित् अर्थ में व्यवहृत होने 'वाला अव्यय' है । इस पर अधिक विवेचन हम सदाभंगी के स्वतंत्र निरूपण में करेंगे।
जैन दर्शन किसी भी पदार्थ को एकान्त नहीं मानता उसके मत से पदार्थ मात्र ही अनेकान्त है। केवल एक ही दृष्टि से किये गये पदार्थ निश्चय को जैन दर्शन अपूर्ण समझता है । उसका कथन है कि पदार्थ का स्वरूप ही कुछ इस प्रकार का है कि उसमें हम अनेक प्रतिद्वन्द्वी परस्पर विरोधी धों को देखते हैं अब यदि वस्तु में रहने वाले अनेक धर्मों में से किसी एक ही धर्म को लेकर उसका-वस्तु का-निरूपण करें। और उसी को सींश से सत्य समझ लो यह विचार अपूर्ण एवं भ्रांत ही ठहरेगा । क्योंकि जो विचार एक दृष्टि से सत्य समझा जाता है तद्विरोधि विचार भी दृष्ट्यन्तर से सत्य ठहरता है। उदाहरणार्थ किसी एक पुरुष व्यक्ति को लीजिये । अमुक नाम का एक पुरुष है उसे कोई, पिता और कोई पुत्र कोई भाई अथवा भतीजा चाचा अथवा ताया कहकर पुकारता है एक पुरुष की इन भिन्न २ संज्ञाओं से प्रतीत होता है कि उसमें पितृत्व, पुत्रत्व और भ्रातृत्व आदि अनेक धर्मों की सत्ता मौजूद है । अब यदि उसमें रहे हुये केवल पितृत्व धर्म की ही ओर दृष्टि रखकर उसे सर्व प्रकार से पिता ही मान बैठे
१-स्थादित्य व्यय मनेकान्त द्योतकम् । ततः स्याद्वादः । भनेकान्त वाद नित्यानित्यायनेक धर्मशक्लैक वस्त्व भ्युपगमः इति यावत् ।
(स्याद्वाद मंजरी का०४ पृ० १४)।
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