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रचना की है। उनमें कल्पसूत्र की सुखबोधिका टीका लोक प्रकाश हैम लघु प्रक्रिया नयकणिका और शान्त सुधारस विशेष उल्लेखनीय हैं ।
इ
उपाध्याय यशोविजयजी --
ये महानुभाव जैन दर्शन के एक अनुपम भूषण थे । इनके समान मेधावी ढूंढने पर भी कम मिलेगा। विद्या के हर एक विषय में इनकी अव्याहत गति थी । इनकी ग्रन्थ रचना और तर्क शैली आज बड़े बड़े विद्वानों को चकित कर रही है। इनकी चमत्कारिणी प्रतिभा और प्रकाण्ड पाण्डित्य के उपलक्ष में काशी की विद्वत्सभा ने इनको न्याय विशारद की पदवी प्रदान की थी । और एक शत ग्रन्थ निर्माण के बदले वहीं से इनको म्यायाचार्य का विशिष्ट पद प्राप्त हुआ था + ये शत ग्रन्थों के निर्माता के
(१) रचना काल वि० सं० १६६६ | श्लोक प्रमाण ६००० १ (२) रचना समय वि०सं० १७०८ श्लोक संख्या १७६११ ।
(३) रचना का समय वि० सं० १७१० मूलश्लोक प्रमाण २५००० । स्वोपज्ञ टीका श्लोक संख्या ३५००० ।
इनके विषय में अधिक देखने की इच्छा रखने वाले नयकर्णिका की गुजराती प्रस्तावना को देखें ।
+ इसके लिये एक जगह पर ये स्वयं लिखते हैं-
पूर्व न्यायविशारदत्व विरुदं काश्यां प्रदत्तं बुधैः । न्यायाचार्यपदं ततः शतप्रन्थस्य यस्यार्पितम् ।
शिष्यप्रार्थनया नयादिविजयप्राज्ञोतमानां शिशु स्तत्वं किंचिदिदं यशोविजय इत्याख्या भृदा ख्यातवान् (त० भा० )
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