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[ १८ ] वाचस्पति मिश्र आदि दार्शनिक विद्वानों का है। जैन साहित्य में तर्क पद्धति को विशिष्ट स्वरूप देकर उसको सुचारु रूप से विकास में लाने का सब से प्रथम श्रेय इन्हीं की है । जैन साहित्य में इनसे प्रथम न्याय शास्त्र का कोई विशिष्ट ग्रन्थ बना हुआ उपलब्ध नहीं होता । पश्चाद् भावी अन्य जैन दार्शनिकों ने मात्र इन्हीं की शैली का अनुसरण किया है । इनकी कृतियों का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि ये दर्शन शास्त्रों के पारगामी, संस्कृत प्राकृत भाषा के प्रौढ़ पण्डित और अनुपम कबि थे। इनका बनाया हुआ न्यायावतार सचमुच ही जैन साहित्य में विशिष्ट न्याय पद्धति का एक सोपान है और इनके सम्मति, तर्क द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका आदि ग्रन्थ मध्य कालीन भारतीय दर्शन साहित्य के बहु मूल्य रत्न हैं । जैन परम्परा के अनुसार सिद्धसेन दिवाकर का समय विक्रम की प्रथम शताब्दी माना जाता है। परंतु कई एक ऐतिहासिक विद्वान इनका समय विक्रम की पांचवीं शताब्दी मानते हैं * लेकिन अभी तक इसका कोई संतोष जनक निर्णय नहीं हुआ। इनका जन्म स्थान तो विदित नहीं हुआ मगर उज्जयनी के आस पास में ही इन्होंने अपना जीवन व्यतीत किया। ये जाति के ब्राह्मण और प्रथम वैदिक धर्म के अनुयायी थे । और बाद में इन्होंने बृद्ध वादी नाम के एक आचार्य के पास जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की ।
* देखो हिन्द तत्व ज्ञान नुं इतिहास पृष्ठ १६ पूर्वार्द्ध ।
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