________________
( १७५ ) लिये वस्तु सत् है तथा सत्व की भांति उसमें वस्तु में-कथंचित असत्व भी है कारण कि जिस प्रकार स्वरूपादि की अपेक्षा से वस्तु में सत्व अनिष्ट नहीं । उसी प्रकार यदि पर रूपादि से भी अनिष्ट न हो तो वस्तु के प्रति नियत स्वरूप का अभाव होने से वस्तु प्रति नियम का विरोध होगा । अत: स्वरूपादि की अपेक्षा जैसे वस्तु में सत्व इष्ट है वैसे पर रूपादि से नहीं इसका तात्पर्य यह हुआ कि स्वरूपादि की अपेक्षा वस्तु में सत्व और पर रूपादि की अपेक्षा से असत्व अतः अपेक्षाकृत भेद से सत्वासत्व दोनों ही वस्तु में बिला किसी विरोध के रहते हैं। + (विद्यानन्द स्वामी)
(४) वस्तु स्व द्रव्य क्षेत्रकाल भाव रूए से सत् और पर द्रव्य क्षेत्रकाल भाव रूप से असत् अतः सत् और असत् उभय रूप है,
बस्तुनोऽसत्वानिष्टौ प्रति नियत स्वरूपा भावात् बस्तु प्रतिनियम विरोधात ।
(अष्टसहस्री १ परिच्छेद पृ० १२६) + ततः स्यात्सदसदात्मका: पदार्थाः सर्वस्य सर्वाकरणात् । नहि घटादि वत् क्षीराबाहरण लक्षणा मर्थकियां कुर्वति घटादि ज्ञानं वा। तदुभयात्मनि दृष्टान्तः सुलभः, सर्वप्रवादिनां श्चेष्ट तत्वस्य स्वरूपेण सत्वेऽनिष्ट रूपेणासत्वे च विवादाभावात् तस्यैव च दृष्टान्तोपपत्तेः। (अष्ट स० पृ० १३३)
स्वरूपाद्यपेक्षं सदसदात्मकं वस्तु, न विपर्यासेन तथाऽदर्शनात् सकल जन साक्षिकं हि स्वरूपादिचतुष्टयापेक्षया सत्वस्य पर ऊपादि चतुष्टयापेक्षया चासत्वस्थ दर्शनं तद्विपरीत प्रकारेण चादर्शनं वस्तुनीति तत्प्रमाणतया तथैव वस्तु प्रपिपत्तव्यम् ।
(प्रष्ट स० पृ० १३५) (४) यतस्तत् स्वद्रव्य क्षेत्रकाल भावरूपेण सद्वर्तते, पर द्रव्यक्षेत्रकाल भावरूपेण चासत् । तत्तश्च सच्चासच भवति अन्यथा तदभाव प्रसंगात् (घटादिरूपेण बस्तुनोऽभाव प्रसंगात् ) इत्यादि । (अनेकान्त जय पताका)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org