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( १७४ ) वस्तु नित्यानित्य की तरह सत् असत् रूप भी है [शंका] यह कथन विरुद्ध है, एक ही वस्तु सत् और असत् रूप नहीं हो सकती, सत्व असत्व का विनाशक है और असत्व सत्व का विरोधी है यदि ऐसा न हो तो सत्व और असत्व दोनों एक ही हो जावेंगे । अतः जो सत् है वह असत् कैसे ? और जो असत् है वह सत् कैसे कहा जा सकता है इसलिये एक ही वस्तु को सत् भी मानना और असत् भी स्वीकार करना अनुचित है [समाधान] यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि यदि. हम एक ही रूप से वस्तु में सत्व और असत्व का अंगीकार करें तब तो विरोध हो सकता है परन्तु हम ऐसा नहीं मानते तात्पर्य कि जिस रूप से वस्तु में सत्व है उसी रूप से यदि उसमें असत्व मानें, तथा जिस रूप से असत्व है उसी रूप से सत्व को स्वीकार करें तब तो विरोध हो सकता है परन्तु हम तो वस्तु में जिस रूप से सत्व मानते उससे भिन्न रूप से उसमें असत्व का अंगीकार करते हैं अर्थात् स्व द्रव्य क्षेत्रकाल भाव की अपेक्षा उसमें सत्व, और पर द्रव्य क्षेत्रकाल भाव की अपेक्षा असत्व है, इसलिये अपेक्षा भेद से सत्व असत्व दोनों ही वस्तु में अविरुद्धतया रहते हैं इसमें विरोध की कोई आशंका नहीं ।
[रत्न प्रभाचार्य । (३) सत्व वस्तु का धर्म है, उसका यदि स्वीकार न किया जाय तो खर विषाण की तरह वस्तु में वस्तुत्व ही न रहेगा, इस
(३) तत्र सत्वं वस्तु धर्मः तदनुपगमे बस्तुनो वस्तुत्वायोगात्, खर विषाणादि वत् । तथा कथंचिदसत्वं, स्वरूपादिभिरि व पररूपादिभिरपि
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