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________________ मूल स्तम्भ माना है वह मात्र उसी की सम्पत्ति नहीं किन्तु अन्य दर्शनों का भी उस पर अधिकार है। वह अपेक्षावाद-किसी व्यक्ति विशेष का आविष्कार किया हुआ सिद्धान्त नहीं किन्तु वस्तु खभाव के अनुकूल एक नैसर्गिक सिद्धान्त है, इसलिये वह सब की समान सम्पत्ति है, तात्पर्य कि वह जिस प्रकार जैनदर्शन को स्वीकृत है उसी प्रकार अन्य दर्शनों को भी मान्य है। यदि कुछ मतभेद है तो अनेकान्तवाद-या स्याद्वाद-इन शब्दों में है। इनके वास्तविक अर्थ में कोई विरोध नहीं। बस इसी अभिप्राय को ब्यक्त करने के लिये हमने यथाशक्ति उपलब्ध प्रामाणिक सामग्री द्वारा प्रस्तुत निबंध की रचना का यथामति प्रयत्न किया है। इस के सिवाय किसी दर्शन के उत्कर्ष या अपकर्ष को जतलाने के लिये हमारा यह प्रयास नहीं और न इस आशय से यह निबंध लिखा गया है । यहाँ पर इतना और भी ध्यान में रहे कि प्रस्तुत निबन्ध की रचना का उद्देश प्रधानतया विशिष्ट विद्वानों के समक्ष अनेकान्तवाद का वर्णन उपस्थित करने का है । प्रथम और मध्यम श्रेणी के लोग इससे पूरा लाभ तो नहीं उठा सकेंगे, तो भी जहाँ तक हो सका हमने उनका भी पूरा ध्यान रखा है और विषय को सरल एवं सुबोध बनाने का भरसक प्रयत्न किया है । इसी ख्याल से प्रस्तुत निबन्ध में एक बात को कई दफा दोहराया और एक विषय की अनेकवार आवृत्ति की है, जिससे कि थोड़ा सा परिश्रम करने पर वे लोग-प्रथम-मध्यम श्रेणि के लोग-भी लाभ उठा सकें । तथा पाठकों को इतना और भी ख्याल में रहे कि इस निबन्ध में ऐतिहासिक क्रम का बिलकुल ध्यान नहीं रखा गया । इसका एक कारण तो यह है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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