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( १५८ ) नंतव्य भिक्षु महोदय ने किस जैन ग्रंथ में से लिया होगा यह हमारी समझ से बाहिर है तथा जैन मत में सब वस्तु अव्यवस्थित-अनिश्चित रूप से ही स्वीकार की है । अर्थात् जैन दर्शन को सभी पदार्थ अव्यवस्थित रूप से ही अभिमत हैं। इस प्रकार का जैन सिद्धान्त उन्होंने किस जैन ग्रंथ के उल्लेख से स्थिर किया इसका भी कुछ पता नहीं चलता । कदापि अनेकान्त शब्द का ही अव्यवस्थित अर्थ उन्होंने समझा हो तो कुछ आश्चर्य महीं ऐसा और भी अनेक विद्वानों ने समझा वा माना है। फिर "सर्व त्रैव स्याच्छब्दो भवतीत्यादिरर्थः" यहां सभी स्थानों में "स्यात्" शब्द भवति [ है-या होता है-सत्ता] इस अर्थ का बोधक है । इस लेख से तो आपने जैन धर्म विषयिणी अपनी अन्तस्तलवर्तिनी प्रज्ञा का परिचय देने में कुछ बाक़ी ही नहीं रखी । साधारण जनता की बात कुछ और है परन्तु विचारक श्रेणी के लोगों में तो इस प्रकार के लेखक कभी उपहास का पात्र हुए बिना नहीं रहते । अच्छा अब आपके प्रतिवाद के लेख का विचार करिये । आपका कथन है कि एक वस्तु में प्रकार भेद का आश्रय लिये बिना भाव और अभाव ये दो विरोधी धर्म नहीं रह सकते । परन्तु ऐसा मानता कौन है ? क्या किसी जैन ग्रन्थ में ऐसा लिखा है कि एक वस्तु में जिस रूप से भाव और उसी रूप से अभाव रहता है ? यदि नहीं तो फिर उस पर [जैन दर्शन पर यह वृथा दोषारोपण क्यों किया जाता है ? क्या यह अन्याय नहीं ? तथा-"यदि प्रकार भेद से ही एक वस्तु में दो विरोधी धर्मों को आप स्वीकार करते हों तो यह हमारा ही मत-सिद्धान्त है अर्थात् प्रकार भेद से दो विरोधी धर्मों की एक पदार्थ में सत्ता
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