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________________ ( १५७ ) भेद-अपेक्षा भेद ] के बिना कभी सम्भव नहीं हो सकता! यदि प्रकार भेद से भावाभाव की स्थिति को मानेंगे तब तो यह हमारे ही मत को आपने स्वीकार कर लिया अर्थात् प्रकार भेद या अपेक्षाकृत भेद से दो विरुद्ध धर्मों का एक जगह पर रहना तो हम मानते ही हैं इसलिये हमारे मत का मापने आश्रय लिया। यदि ऐसा ही है तो फिर आप जगत-तद्वति पदार्थों को अव्यवस्थित [अनिश्चित-व्यववस्था नियम से रहित] रूप से क्यों मानते हो अर्थात् जगत् को अव्यवस्थित न मानकर व्यवस्थित ही स्वीकार करना चाहिये । विज्ञान भिक्षु के विज्ञानामृत भाष्य के इस लेख से उनके जैन मत सम्बन्धी विधान और प्रति विधान की यथार्थता का अच्छी तरह से ज्ञान होजाता है ! मालूम नहीं भिक्षु महोदय जैन दर्शन के कितने बड़े पण्डित होंगे । हमारे ख्याल में तो वे जैन दर्शन से विलकुल अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं। उन्होंने जैन दर्शन के द्रव्यानुयोग विषय की कोई प्रारम्भिक पुस्तक भी साधन्त पढ़ी अथवा देखी हो ऐसा उनके लेख से स्पष्ट प्रतीत नहीं होता । हमारा अब तक यही ख्याल रहा कि आजकल के ही कतिपय भट्टाचार्य, किसी धर्म या सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का पूर्णतया मनन किये बिना ही उसको ममनाने शब्दों में कोसने को तैयार होजाते हैं परन्तु विज्ञान भिक्षु के उक्त लेख से अब विदित हुआ कि यह रोग आजकल का ही नहीं किन्तु बहुत पुराना है । सत् और असत् ये दो ही मुख्य पदार्थ हैं आकाशादि धर्मी और एकत्वादिधर्म यह सब कुछ इन्हीं दो, सत् असत् पदार्थों का विशेष-(प्रपंच) है । इस प्रकार का जैन दर्शन का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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