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( १५६ ) स्तिवा वक्तव्यः स्यादस्ति चनास्तिचा वक्तव्य श्वेति सर्वौव स्याच्छब्दो भवतीत्यादिरर्थ इति । 'अत्रेदमुच्यते न एकस्मिन् वस्तुनि यथोक्तभाषा भावादि रूपत्वमपि, कुत: असम्भवात् प्रकार भेदं विना विरुद्धयोरेकदा सहावस्थान संस्थासम्भवात् प्रकार भेदाभ्युपगमे चास्मन्मत प्रवेशेन सर्वेव व्यवस्थास्ति कथ मव्यवस्थितम् जगदभ्युपगम्यते भवदभिरित्यर्थः ]
भावार्थ- ब्रह्म की कारणता में उपयोगी, जो वेदान्तोक्त सत्कार्यवाद है उसकी सिद्धि के लिये वेदवाह्य जैन मत का निराकरण करते हैं । जैन मत में सामान्यतः “सत्" और "असत्" ये दो ही पदार्थ माने गये हैं ! आकाशादि धर्मी और एकत्वादि धर्म, यह सब कुछ इन्ही दो-सत्-असत् पदार्थों का प्रपंच है। इस मत में सप्ताभंगीन्याय से सभी पदार्थों में सत्व, असत्व और अनिर्वचनीयत्वादि का स्वीकार किया है । जैसे-सर्व वस्तु अव्यवस्थित-[व्यवस्था-नियम रहित ] ही है। स्यादस्ति स्यानास्तित्यादि यहां स्यात् शब्द सब जगह पर “भवति" इस अर्थ का ही बोधक है [ यह तो जैन मत का स्वरूप बतलाया गया अब इस मत का जिस प्रकार से खण्डन किया है उसको भी पाठक सुनें]
अत्रोच्यते इत्यादि-भाव और अभाव आपस में विरोधी हैं। इनका एक वस्तु में रहना प्रकार भेद [ निरूपक
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